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‘‘मांजी तो हर महीने 1-2 चक्कर लगाती ही थीं, पूरी व्यवस्था है. मेरी मां हैं, बहन है खाने के लिए कोई परेशानी नहीं होगी.’’

नौकर की घर पर भी बहुत जरूरत थी तो सब मान गए.

गाड़ी ने गांव का रास्ता पकड़ा. हरीश बाबू का मन उदास हुआ. आज बेटों की सुविधा के लिए वे गांव चल पड़े और निर्मला विनती करती रही कि एक बार गांव चलो, देखो न तुम्हारे लिए कितने सारे सरप्राइज गिफ्ट जमा कर रखे हैं वहां. पर वे नहीं आए. न तो समय निकाला न मन ही था. कहतेकहते बेचारी निर्मला ही संसार छोड़ गई. उन्होंने मन ही मन निर्मला से क्षमायाचना की.

10 वर्ष बाद गांव आ रहे थे. अंतिम बार अम्मा का क्रियाकर्म करने आए थे बस. पर निर्मला का गांव से गठबंधन नहीं टूटा था. वह बराबर आती, 8-10 दिन रह भी जाती अकेली ही, बच्चे भी नहीं जाते थे. वह बड़े शहर कानपुर की पलीबढ़ी थी पर गांव से लगाव था उस को. हां, बच्चों और पति को कभी जबरदस्ती यहां लाने का झगड़ा नहीं किया. राजू को साथ ले आती, जब तक मन लगता, रहती, फिर लौट जाती. बच्चे हंसते, हरीश बाबू गुस्सा करते पर निर्मला ने आना नहीं छोड़ा.

10 वर्षों में विशेष परिवर्तन तो नहीं हुआ, बस इतना है कि बस्ता ले कर स्कूल जाते बच्चों की संख्या काफी बढ़ी है. पहले की तरह घर में पहने बनियाननेकर या मैलेकुचैले कपड़ों के साथ नंगे पैर कोई नहीं है. सब स्कूल डै्रस में हैं. पैरों में बिना मोजे के जूते हैं, कपड़ों पर इस्त्री नहीं, पर वे साफ धुले हैं और तेल चुपड़े बालों में कंघी हुई है. बच्चे साफसुथरे लग रहे हैं. कच्ची गड्ढेदार सड़क भी पक्की तारकोल की बन गई है. राजू ने पहली बार मुंह खोला, ‘‘यह सड़क मांजी के कारण ही बनी है.’’

चौंके बुरी तरह, अवाक् हो, बोले, ‘‘क्या कह रहा है? कैसे?’’

‘‘मांजी के भतीजे बहुत बड़े सरकारी अफसर बन कर आए थे न, तब उन से कह कर…’’

हां, 7-8 वर्ष पहले विमल यहां जिलाधिकारी था तो उसी से यह

10 किलोमीटर का रास्ता पक्का करवाया था निर्मला ने. तो यही उस का सरप्राइज गिफ्ट है. मन में थोड़ी शांति आई. गाड़ी बिना झटके खाए आराम से आगे फिसलती जा रही थी.

45 वर्ष के विवाहित जीवन में छोटामोटा मनमुटाव छोड़ गंभीर झगड़ा कभी नहीं हुआ निर्मला से. उस की सूझबूझ, दूरदर्शिता की कद्र करते थे, उस को मूल्य देते थे, प्रशंसा भी करते थे हरीश बाबू. उन्होंने सदा ही उस के निर्णय को माना है बस, 1 को छोड़. उस की इच्छा थी कि सेवानिवृत्ति के बाद दोनों गांव में आ कर शांति से जीवन जिएंगे. कहती थी, ‘अम्मा ने साम्राज्य छोड़ा है हम लोगों के लिए. हम को उसे ठीक से चलाना चाहिए. हम खेती कराएंगे, बागों का रखरखाव करेंगे, डेरी बनवाएंगे, मुरगी फार्म खोलेंगे तो देखना बुढ़ापे में भी कितने व्यस्त रहेंगे. मजा आएगा जीवन का. और शहर, बच्चे कौन दूर हैं? घंटेभर का ही तो रास्ता है, गाड़ी है, राजू है.’

पर वह उन को हिला नहीं पाई. अपनी ही जन्मभूमि के प्रति उन के अंदर कोई लगाव नहीं था. कुछ घंटों के लिए भी वे नहीं आए जबकि निर्मला नियम से आती, हफ्ताभर रह कर जाती, कितना कहती, ‘चलो न एक बार, देखो बहुत सारे सरप्राइज गिफ्ट रखे हैं मैं ने वहां तुम्हारे लिए.’

पता नहीं वे सब क्या थे? अब गांव जा भी रहे हैं हरीश बाबू तो निर्मला नहीं है, अकेले उन गिफ्टों को कौन दिखाएगा? वंचित ही रह गए वे निर्मला के रखे उन गिफ्टों से. हृदय की गहराई से गहरी सांस निकल हवा में जा मिली.

निर्मला में एक व्यक्तित्व था जो सब उस का सम्मान करते थे. घर की कुशल निर्देशिका थी. भाईभाई, देवरानीजेठानी में प्रेमसद्भाव बना हुआ है. इस परिवार की नींव वह इतनी मजबूत कर गई है कि वह हिलेगी नहीं, कम से कम इस पीढ़ी में तो नहीं.

हरीश बाबू को थोड़ी थकान लगने लगी, ‘‘राजू, और कितनी दूर है?’’

‘‘बस आ गए. बाबूजी, चाय पी लीजिए.’’

‘‘चाय? यहां कहां?’’

‘‘है सामने ही.’’

‘‘गांव में किसी ने स्टौल खोला है क्या?’’

‘‘जी, अपना गोकुल है, मुरारी चाचा का बेटा.’’

हरीश बाबू ने सोचा था झोंपड़ी में गंदे बरतन में काढ़ा जैसी चाय बेचता होगा पर पास आ चौंके, पक्की साफसुथरी दुकान है. गैस पर केतली, दूध, चाय, चीनी अलगअलग शीशे के शो केस में बिस्कुट, डबलरोटी, मक्खन. झूलते नमकीन के पैकेट और काउंटर के पीछे साफसुथरा कुरताजींस पहने एक नई उम्र का प्रियदर्शन लड़का गोकुल. यहां जब आखिरी बार आए थे तब दसएक वर्ष का बालक होगा, अब युवक है. उस ने गाड़ी देख पहचान लिया. दौड़ आया, दरवाजा खोल पैर छुए, झरझर रो पड़ा.

‘‘बाबूजी, अम्मऽऽऽ….’’

वे अवाक्, पर कुछ बोल नहीं पाए. वह आंसू पोंछ दौड़ कर लौट गया. उन्होंने देखा अलमारी खोल उस ने सुंदर पोर्सलीन के कपप्लेट निकाले और एक टी बैग. गरम पानी से कपप्लेट धो उस ने टी बैग डाल ताजी चाय बनाई. फिर दौड़ आया सुगंधित ताजी चाय ले. उन्होंने चाय ली, एक घूंट भरा, तारीफ की, ‘‘चाय अच्छी है.’’

वह हंसा, ‘‘अम्माजी आतेजाते पीती थीं. उन के लिए बढि़या चाय और कपप्लेट मंगा कर रखे हैं…’’

चौंके वे, पर कुछ बोले नहीं. प्याला खाली कर रख दिया. साथ में एक 10 रुपए का नोट. वह रो पड़ा.

‘‘बाबूजी, अम्मा ने जीवनभर की रोटी दी है. पैसा नहीं लूंगा.’’

चला गया आंसू पोंछता. उन की समझ में कुछ नहीं आया.

राजू ने गाड़ी स्टार्ट की.

‘‘इस ने पैसे क्यों नहीं लिए?’’

‘‘कैसे लेता बाबूजी, आवारा बच्चों की संगत में फंस गया था. मुरारी आ कर मांजी के पास रो पड़ा तो उन्होंने इसे बुला डांटा भी और समझाया भी. फिर अपने पैसों से यहां पक्की दुकान बनवा चाय की दुकान खुलवा दी. लंबी सड़क है इसलिए खूब चलती भी है. यह खेत मांजी ने रामभरोसे से खरीदा है, जहां दुकान है. आप का है यह खेत. अब सुधर गया है गोकुल, कमाई करता है खूब, घर पक्का बनवा लिया है.’’

हरीश बाबू अवाक्, निर्मला ने कभी बताया नहीं. नया खेत खरीदना, पक्का कमरा बना चाय की दुकान खोल एक बरबाद होते लड़के के जीवन को बचाना, ये तो बड़ीबड़ी बातें हैं पर उस ने कभी चर्चा नहीं की. इतना पैसा आया कहां से? तभी उन्हें ध्यान आया कि खेतबाग की आमदनी कम नहीं है. पहले कभी अम्मा ने हिसाब नहीं दिया, पीछे निर्मला ने भी नहीं. उन को ध्यान भी नहीं था कि यहां स्टेट बैंक की शाखा पहले से है, उसी में अम्मा का खाता था. निर्मला का भी होगा, तो खेत खरीद कर दुकान बनाने में निर्मला ने उन को परेशान नहीं किया होगा.

घर के सामने आते ही पुरानी स्मृतियां ताजा हो गईं. इसी घर में 15 वर्ष की निर्मला को ब्याह कर लाए थे

20 वर्ष की उम्र में. नईनई नौकरी थी, मथुरा में पोस्टिंग थी. इतनी कम उम्र में निर्मला को अकेली नहीं आने दिया था अम्मा ने, वैसे भी उस जमाने में शादी होते ही बेटे के साथ बहू को भेज देने का चलन नहीं था. मथुरा पास भी था तो वे शनिवार को आ कर सोमवार भोर में मथुरा लौटते थे. कोई असुविधा नहीं थी. जीप थी, सरकारी कोठी में सेवा के लिए सरकारी नौकर, माली थे.

राजू ने गाड़ी रोकी, उतर कर गेट खोला.

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