‘‘मु झे ‘सू’ कह कर पुकारो, पापा. कालिज में सभी मुझे इसी नाम से पुकारते  हैं.’’ ‘‘अरे, अच्छाभला नाम रखा है हम ने...सुगंधा...अब इस नाम मेें भला क्या कमी है, बता तो,’’ नरेंद्र ने हैरान हो कर कहा.

‘‘बड़ा ओल्ड फैशन है...ऐसा लगता है जैसे रामायण या महाभारत का कोई करेक्टर है,’’ सुगंधा इतराती हुई बोली.

‘‘बातें सुनो इस की...कुल जमा 19 की है और बातें ऐसी करती है जैसे बहुत बड़ी हो,’’ नरेंद्र बड़बड़ाए, ‘‘अपनी मर्जी के कपड़े पहनती है...कालिज जाने के लिए सजना शुरू करती है तो पूरा घंटा लगाती है.’’

‘‘हमारी एक ही बेटी है,’’ नरेंद्र का बड़बड़ाना सुन कर रेवती चिल्लाई, ‘‘उसे भी ढंग से जीने नहीं देते...’’

‘‘अरे...मैं कौन होता हूं जो उस के काम में टांग अड़ाऊं ,’’ नरेंद्र तल्खी से बोले.

‘‘अड़ाना भी मत...अभी तो दिन हैं उस के फैशन के...कहीं तुम्हारी तरह इसे भी ऐसा ही पति मिल गया तो सारे अरमान चूल्हे में झोंकने पड़ेंगे.’’

‘‘अच्छा, तो आप हमारे साथ रह कर अपने अरमान चूल्हे में झोंक रही हैं...’’

‘‘एक कमी हो तो कहूं...’’

‘‘बात सुगंधा की हो रही है और तुम अपनी...’’

‘‘हूं, पापा...फिर वही सुगंधा...सू कहिए न.’’

‘‘अच्छा सू बेटी...तुम्हें कितने कपड़े चाहिए...अभी 15 दिन पहले ही तुम अपनी मम्मी के साथ शापिंग करने गई थीं... मैचिंग टाप, मैचिंग इयर रिंग्स, हेयर बैंड, ब्रेसलेट...न जाने क्याक्या खरीद कर लाईं.’’

‘‘पापा...मैचिंग हैंडबैग और शूज

भी चाहिए थे...वह तो पैसे ही खत्म हो गए थे.’’

‘‘क्या...’’ नरेंद्र चिल्लाए, ‘‘हमारे जमाने में तुम्हारी बूआ केवल 2 जोड़ी चप्पलों में पूरा साल निकाल देती थीं.’’

‘‘वह आप का जमाना था...यहां तो यह सब न होने पर हम लोग आउटडेटेड फील करते हैं...’’

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...