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लेखक-अरुणा त्रिपाठी

कहते हैं न कि चोर जब तक पकड़ा नहीं जाता चोर नहीं कहलाता. लोग गलत काम करने से उतना नहीं डरते जितना समाज में होने वाली बदनामी से डरते हैं. समाज के सामने यदि सबकुछ ढकाछिपा है तो सब ठीक. अपनी नजर में अपनी इज्जत की कोई परवा नहीं करता. सुमित्रा अपनी बेटी के दफ्तर व वहां के काम के ढंग से वाकिफ थीं इसलिए उन्होंने निष्कर्ष यही निकाला कि बेटी सयानी है, उस की जितनी जल्दी हो सके शादी कर देनी चाहिए.

सुमित्रा को अब किसी सहारे की जरूरत नहीं थी क्योंकि उन की अपनी दुकान अच्छी चलने लगी थी. बेटी अपने घर चली जाए तो वह एक जिम्मेदारी से छुटकारा पा सकें, यही सोच कर उन्होंने कुछ लोगों से कल्पना के विवाह की चर्चा की. चूंकि घर की आर्थिक स्थिति ठीक होने के बाद वे भी अब सुखदुख के साथी बने खडे़ थे जो तंगी के समय उस के घर की ओर देखते भी नहीं थे. अब खतरा नहीं था कि सुमित्रा अपना दुखड़ा सुना कर उन से अपने लिए कुछ उम्मीद कर सकती हैं. अब कुछ देने की स्थिति में भी वह थीं.

सुमित्रा के बडे़ भाई एक रिश्ता ले कर आए थे. अच्छे खातापीता परिवार था. जमीनजायदाद काफी थी. लड़के के पिता कसबे के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में थे और उन की राजनीतिक पहुंच थी. कल्पना की सुंदरता से प्रभावित हो कर वह यह शादी 1 रुपए में करना चाहते थे. दहेज न ले कर वह चाहते थे लाखों लोगों की वाहवाही व प्रचार, क्योंकि उन की नजर अगले विधानसभा चुनाव पर टिकी थी और सुमित्रा जैसी विधवा दर्जी की सिपाही बेटी के साथ अपने बेरोजगार बेटे का विवाह कर वह न केवल एक विधवा बेसहारा को धन्य कर देना चाहते थे बल्कि उस पूरे इलाके में वाहवाही पाना चाहते थे.

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