लेखक-डा. आर एस खरे 

मिस्टर धनराज नहीं रहे. कोरोना से जंग हार गए. वे अपने उद्योगपति बेटे के पास दिल्ली गए थे. जाने से पहले मु झ से मिलने आए थे. उम्र का तकाजा दे कर मैं ने उन्हें कोरोना से आगाह किया तो बोले, ‘कपिलजी, मैं योगगुरु बाबाजी का चेला हूं. रोज उन का बनाया काढ़ा पीता हूं और नाक में तेल की बूंद डालता हूं. बाबाजी की कोरोना किट सदैव मेरे साथ चलती है.’

मैं ने कहा, ‘धनराजजी, फिर भी सावधानी में ही सम झदारी है. बहुत जरूरी न हो, तो कुछ दिनों के लिए दिल्ली जाना टाल दीजिए. अभी कोविड की दूसरी लहर वहां पीक पर है. अस्पतालों में औक्सीजन और रेमडेसिवियर इंजैक्शन की मारामारी है.’

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‘अरे कपिलजी, पैसे वालों के लिए कहीं कोई कमी नहीं. मेरा बेटा वनराज बता रहा था कि जरूरत पड़ने पर ‘खान चाचा होटल’ से ब्लैक में औक्सीजन सिलैंडर मिल जाते हैं और रेमडेसिवियर इंजैक्शन तो प्राइवेट अस्पताल का स्टोर इंचार्ज चौगुनी कीमत ले कर घर पहुंचा देता है. अपने भोपाल के हमीदिया अस्पताल से चोरी हुए रेमडेसिवियर भी तो दिल्ली में ही मिले थे.’

‘धनराजजी, वह तो ठीक है पर पेशेंट को भरती होने के लिए खाली बैड भी तो मिलना चाहिए. वहां तो खाली बैड ही नहीं मिल रहे.’

‘कपिलजी, वीआईपी के लिए सभी बड़े अस्पताल कुछ बैड रिजर्व रखते हैं. आंकड़ों में दिखाने के लिए कुछ डमी मरीजों को कोरोना बैड आवंटित दिखाए जाते हैं और बड़े आसामी के आते ही उसे डिस्चार्ज कर बैड उपलब्ध हो जाता है.’’

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