सरकार के साधन असंख्य होते हैं. फौरन जिलाधीशों और विकास अधिकारियों की आपातबैठक हुई. निर्देश दिया गया कि सच्चीमुच्ची में वृक्ष लगाए जाएं. इस के और नाना प्रकार के अन्य फंड पहले से ही सब की जेब में हैं, सो, कोई कमी या दिक्कत का बहाना नहीं सुना जाएगा. 15 दिनों बाद दोबारा जांच की जाएगी तब तक किसी न किसी बहाने कमीशन का दौरा अटकाया जाता रहेगा.
अधिकारसंपन्न अधिकारी वापस लौट आए. वे ऐसे आदेशों की अनसुनी करने के अभ्यस्त मगर अपनी खाल बचाने में पारंगत. उन्होंने फौरन तहसीलदारों और खंडविकास अधिकारियों को वृक्षारोपण सुनिश्चित करने के लिखित निर्देश जारी किए और चैन की बंसी बजाने लगे.
मगर अगंभीर सरकार इस बार गंभीर थी. मामला कोर्ट का था न. मुख्य सचिव को अपने अफसरों की ईमानदारी और कर्मठता के बारे में कोई गलतफहमी न थी. इसलिए एक दिन लावलश्कर के साथ खुद जांच के लिए निकल पड़े. जैसा अंदेशा था, बिलकुल वैसा ही हुआ. जिनजिन तहसीलों में छापे मारे वहां के वृक्ष केवल फाइलों में लहलहाते मिले. इतनी हिमाकत. मुख्य सचिव का कहर तहसीलदारों और खंडविकास अधिकारियों की पीठ पर निलंबन का कोड़ा बन बरसने लगा. एकदो जिलाधीश भी उस के लपेटे में आ गए.
पूरे प्रदेश में हंगामा मच गया. सारे तहसीलदारों और अधिकारियों की नींद हराम हो गई. मगर खेलावन बाबू मस्त थे. 15 वर्षों पहले वे पटवारी के रूप में सरकारी सेवा में भरती हुए थे और ‘कड़ी वाली’ मेहनत कर तहसीलदार बन गए थे. इस बीच वे कितने घाटों का पानी पी चुके थे, उन्हें खुद भी याद न होगा.
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