ज्योंज्यों दीवाली निकट आती जा रही थी, अंजलि का हृदय अब की बार बाहरी चमकदमक देख कर भी न जाने क्यों खुश नहीं हो रहा था. यद्यपि घर के लोगों ने उस का दीवाली पर भरपूर स्वागत किया था, पर जब भी कोई उस से पूछता कि विवेक क्यों नहीं आया तो उस का मन बु झ जाता. उस ने झूठ बोल कर कि अत्यधिक व्यस्तता के कारण वे नहीं आ पाएंगे, सब को आश्वस्त तो कर दिया पर उस के चेहरे की उदासी से सभी ने स्पष्ट भांप लिया था कि वह कुछ छिपा रही है, दोनों में कुछ अनबन है.
उसे स्वयं ही अपने ऊपर लज्जा आती. उसे लगता कि अब उस घर में उसे पहले वाली खुशी कभी नहीं मिल पाएगी. इसलिए कि यह घर उस के लिए पराया सा है. बाहरी जगमगाहट उस के लिए निरर्थक है.
बहुत प्रयत्न कर के वह अपनी आंतरिक वेदना को छिपाती रहती और हर प्रकार से खुश दिखने का प्रयत्न करती. दीवाली के निकट आने के साथ ही घर की रौनक बढ़ती जा रही थी. रात को कारों की पंक्तियां उस के पापा के घर के बाहर उन की शान का बखान करती दिखाई देतीं. वह भागभाग कर मेहमानों की अगवानी करती. उसे देखते ही लोग उस की खाली बगल में विवेक को ढूंढ़ते और सब की जिह्वा पर वही प्रश्न तैर जाता कि ‘विवेक कहां है?’ उस का अंतर्मन रो उठता. ऊपर से वह कितनी ही खुश दिखाई देने का प्रयत्न करती पर उसे लगता उस के दिल का एक कोना टूट कर कहीं अलग छिटक गया है विवेक के पास ही.
फिर आ पहुंची दीवाली की रात, चारों ओर धूमधड़ाका होता रहा, आतिशबाजी व पटाखे छूटते रहे. उस की मां ने उसे कीमती साड़ी उपहार में दी. पर उसे पहनने को उस का मन नहीं हुआ. अनमने मन से पहन कर जब वह शीशे के सम्मुख खड़ी हुई तो उसे लगा उस ने स्वयं विवेक का अपमान किया है. विवेक से विवाह कर के उस की पत्नी बनने के बाद मातापिता के पैसे पर उस का कोई अधिकार नहीं रह जाता है. विवेक से रूठ कर इस घर में आने का उसे कोई हक नहीं था.
रहीसही कसर भी तब पूरी हो गई जब उस साड़ी में देख कर शराब व जुए के नशे में झूमते हुए विक्रांत ने उस पर कटाक्ष किया, ‘‘वह डाक्टर तो सारी उम्र भी ऐसी साड़ी कभी नहीं पहना पाएगा तुम्हें, अंजू. यह तो तुम्हारी मम्मी की ही मेहरबानी दिखाईर् देती है.’’
अंजलि अपमान से तड़प उठी थी. उस ने कमरे में जा कर साड़ी को उतार दिया और अपनी लाई हुई साड़ी पहन कर पलंग पर लेट कर सिसकने लगी. उस समय लोग जुए में व्यस्त थे. शराब के नशे में झूम रहे थे. उसे पूछने वाला था ही कौन? न जाने कब उस की आंख लग गई. स्वप्न में भी वह विवेक के आगे रोती रही. उस से क्षमायाचना करती रही.
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करीब 3 बजे पूरी कोठी में भागदौड़ और हंगामा सुन कर उस की आंखें खुलीं. सब लोग इधरउधर भाग रहे थे. पकड़ो… पकड़ो…चोर सब माल ले कर भाग रहे हैं.’’ ऊपर की खिड़कियों के सभी शीशे तोड़ कर तिजोरी व गोदरेज की अलमारियों में से सारी रकम, गहने व कीमती वस्त्र ले कर चोर न जाने कहां भाग गए थे. लगता था चोरों के किसी बड़े गिरोह ने पहले से ही योजना बना रखी थी. नीचे हौल में जुआ चलता रहा और ऊपर चोर बेफिक्री से अपना काम करते रहे. माल का कहीं पता न चला तो अंजलि के पापा को भारी सदमा पहुंचा. उन्हें हार्टअटैक हो गया और उसी समय अस्पताल पहुंचाया गया.
इमरजैंसी में विवेक की ड्यूटी थी. उस ने अथक परिश्रम कर के रात भर जाग कर अपने ससुर के प्राणों की रक्षा की. अंजलि भी रातभर वहीं रही. विवेक अपने कार्य में व्यस्त था और अंजलि मन ही मन उस के कदमों पर झुकती जा रही थी. दोनों ही कुछ भी बोल नहीं पाए.
एकांत पा कर अंजलि ने विवेक से कहा, ‘‘तुम ने पापा की जिंदगी तो बचा ली, लेकिन उन की आयु भर की कमाई चली गई. दिनेश भैया की अभी पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई है. उसे अभी कहीं सर्विस में जाने से पहले तीन साल का खर्च चाहिए. कैसे चलेगा?’’
‘‘ओह, तुम भी अब इतना सम झने लगी हो? अरे, चिंता क्यों करती हो. अभी तो तुम्हारे पापा की मेहनत की बहुत सी कमाई बैंक में होगी, उस से तुम्हारे भैया की पढ़ाई मजे से हो जाएगी और तुम्हारा मनचाहा खर्च भी चल जाएगा.’’ विवेक ने व्यंग्य किया.
अंजलि ने आंखों में आंसू भर कर कहा, ‘‘यह समय ऐसी बातें करने का नहीं है. सच तो यह है कि पापा ने कभी बचाने की सोची ही नहीं. जो कमाया वह सब फूंक दिया या उस का कुछ खरीद लिया. घर भरा हुआ था आभूषणों व कीमती वस्त्रों से. अब कुछ भी नहीं रहा.’’
‘‘तभी तो मैं तुम से कहता रहा हूं कि जितना कमाओ उस में से बचाओ भी. पैर इतने पसारो जितनी चादर हो.’’
‘‘तुम वास्तव में ठीक कहते थे. इंसान थोड़ा कमा कर भी उस में से यदि थोड़ाथोड़ा बचाए तो बहुत हो जाता है. दूसरी ओर अंधाधुंध कमा कर अंधाधुंध खर्च करने से तो कुछ भी हाथ में नहीं रहता.’’
‘‘अब तुम सम झदार हो गई हो, अंजलि. तुम्हें एक बात और सम झा दूं, मु झे अंधाधुंध कमाई में भी विश्वास नहीं है, क्योंकि अनुचित तरीके से कमाए गए पैसे को इंसान उचित तरीके से संभाल नहीं पाता. उसे चोर या डाकू ही ले जाते हैं.’’ विजयभरी मुसकान से विवेक अंजलि को पैसे का महत्त्व बता रहा था.
इतने में अंजलि की मां भी वहीं आ गईं. उन की आंखों की उदासीनता को देख कर विवेक बोला, ‘‘मांजी, आप चिंतित न हों. पापा शीघ्र ही ठीक हो कर काम संभालेंगे. यह तो अच्छा हुआ कि उन्हें उचित समय पर उपचार मिल गया और जान बच गई. यदि मैं भी उस समय शराब में डूबा होता तो अनर्थ हो जाता. दिनेश की पढ़ाई का खर्च जब तक पापा ठीक नहीं होते, मैं उठाने को तैयार हूं. आखिर हम बचा कर किस दिन के लिए रख रहे हैं.’’ विवेक ने अंजलि की ओर देख कर कटाक्ष किया.
अंजलि को लगा कि उस का कंजूस पति ही सब से अधिक धनवान है और वह सब से अधिक सुखी है. उसे अपने हाथ में खुशियों के रंगबिरंगे दीए जगमगजगमग करते हुए महसूस हुए. विवेक के कान में जा कर उस ने धीरे से कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो, विवेक. मु झे जल्दी ही लेने के लिए आ जाना ताकि कोई यह न जान पाए कि मैं तुम से रूठ कर आई थी. बोलो, आओगे न? नाराज तो नहीं हो मुझसे?’’
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विवेक ने शरारतभरी आंखों के साथ कहा, ‘‘अब की बार लेने आ जाऊंगा. पर फिर कभी ऐसी गलती की तो…’’ उस ने गाल पर एक चपत जड़ते हुए आगे कहा, ‘‘तो तुम सोच भी नहीं सकतीं मैं क्या कर जाऊंगा, सम झीं?’’
‘‘नहीं, बाबा, अब ऐसा नहीं होगा. बारबार माफी तो मांग रही हूं.’’ अब अंजलि अनुभव करने लगी थी कि वास्तविक दीवाली तो मनुष्य की आंतरिक खुशी है. दिल में प्यार की रोशनी है तो घर भी रोशन है. बिना प्यार के ऊपरी जगमगाहट व्यर्थ है, दिखावा है.