गुटकू के साथ मेरा रिश्ता बहुत रूहानी है. कभी नहीं लगा कि वह एक जानवर है और मैं इनसान. गुटकू को अगर कोई कुत्ता कह दे तो मुझे बड़ी कोफ्त होती है. दरअसल वह कुत्ता भी नहीं, बल्कि कुत्ती है. जब उसको पहली बार अस्पताल ले जाते वक्त मैंने ‘गुटकू’ कह कर पुकारा था, तब मुझे उसके लिंग के बारे में पता नहीं था. पर एक बार जो नाम उसके लिए मुंह से निकल गया, वह फिर बदल नहीं पायी. हालांकि बाद में आस-पड़ोस के बच्चों ने उसके कई नाम रख दिये. कोई उसे चिंकी कहता, कोई जूली तो कोई ओरियो, मगर मेरे लिए वह गुटकू ही रही. स्ट्रीट डॉग्स के बारे में मेरी कोई खास जानकारी नहीं थी. न ही मैंने कभी सड़क पर घूमने वाले कुत्तों की तरफ ध्यान दिया था. मगर उस दिन वह नन्हा सा जीव एक गाड़ी के नीचे आकर चोट खा गया था. ये तो अच्छा हुआ कि कार का पहिया उसके ऊपर नहीं चढ़ा, लेकिन फिर भी उसकी पीठ काफी छिल गयी थी. मैं ऊपर अपने फ्लैट की खिड़की से गाड़ी को उसके ऊपर से निकलते देख चीख पड़ी थी. दोपहर का वक्त था, सड़क पर सन्नाटा पसरा था कि अचानक उसकी कें-कें चारों ओर गूंजने लगी. मैं भागी-भागी नीचे गयी तो देखा कि वह सड़क के किनारे नाली से चिपकी बड़ी मरियल सी आवाज में दर्द से कराह रही थी. मैंने झपट कर उसे उठाया. मेरी गोद में आकर वह मेरे सीने से चिपक गयी. मैंने उसका सिर सहलाया तो उसको कुछ राहत मिली. शायद डर कुछ कम हुआ होगा. वह मेरी गोद में थोड़ा और सिकुड़ गयी. मुझसे रहा नहीं गया. उसकी पीठ पर खून छलछला आया था. मैंने आसपास उसकी मां को तलाशा, मगर वह मुझे कहीं नजर नहीं आयी. उस नन्हीं सी जान को सड़क पर ऐसे छोड़ना मुझे ठीक नहीं लगा, फिर उसे चोट भी लगी हुई थी. मैंने रिक्शा लिया और उसे जानवरों के अस्पताल ले गयी. रास्ते भर वह खुद को मेरी गोद में सुरक्षित महसूस कर रही थी और अपनी भूरी-भूरी आंखें उठा कर बार-बार मेरी ओर देख रही थी. उस दिन उस छोटी सी हाथ भर की बच्ची को मैंने नाम दिया था ‘गुटकू’. अस्पताल में डॉक्टर ने उसको इंजेक्शन लगाया और घाव को साफ करके दवा लगा दी. एक दवा की ट्यूब भी मुझे दी कि दिन में दो बार घाव पर लगा देना. मैं गुटकू को लेकर वापस आ गयी. देखा कि मेरे घर के नीचे उसकी मां उसको तलाशती घूम रही थी. मेरी गोद में उसको देख कर वह मेरे पास आकर पूंछ हिलाने लगी. मैंने उसको पुचकारा और बच्चे को उसके पास छोड़ दिया. वह बड़ी देर तक उसे चाटती रही. फिर वहीं लेट कर उसे दूध पिलाने लगी. मैं मां-बेटी को सड़क के किनारे छोड़ कर ऊपर आ गयी, यह सोचते हुए कि गुटकू अपनी मां के साथ सुरक्षित है.

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गुटकू की मां ने चार पिल्ले दिये थे, हमारे घर के नीचे. जिसमें से उसके तीन बच्चे एक-एक कर गाड़ियों के नीचे आकर मर गये. गुटकू अकेली ही बची थी. गुटकू की मां बड़ी दुबली पतली थी, शायद उसको भरपेट खाना नहीं मिलता था. मिलता भी कैसे? दिल्ली की इन कॉलोनियों में साफ-सफाई का इतना ध्यान रखा जाता है कि कोई अपने घर से बासी खाना बाहर फेंकता ही नहीं है. छोटे शहरों में तो गाय या कुत्ते के लिए लोग अपने घर का बासी खाना रात को सड़क के किनारे रख आते हैं, मगर यहां तो सुबह-सुबह नगर निगम की गाड़ियां आकर घर-घर से सारा कूड़ा इकट्ठा करके ले जाती हैं. लिहाजा जानवरों को भोजन की तलाश में अपने इलाके से दूर-दूराज के क्षेत्रों में जाना पड़ता है. यही समस्या गुटकू की मां के सामने भी थी. मां बनने के बाद वह और ज्यादा दुबली हो गयी थी. यहां उसे पेटभर खाना भी नहीं मिलता था. खाने की तलाश में वह अपने बच्चों को छोड़ कर दूर निकल जाती थी. उसके बच्चे लावारिस से सड़क पर घूमते थे. उन्हें आनेजाने वाले वाहनों से बचना भी नहीं आता था. लिहाजा एक-एक कर दुनिया से कूच कर गये. अब अकेली गुटकू ही बची थी. वो भी अपनी मां के जाने के बाद सड़क पर इधर से उधर घूमती रहती थी. शामि को जब उसकी मां आती तो दूध पीने को लेकर मां-बेटी में बड़ी खींचतान होेती थी. मैं अपनी खिड़की से देखती रहती थी. वह बड़ी मुश्किल से उसे दूध पिलाती थी. एक दिन शाम को जब बड़ी देर तक गुटकू की मां नहीं लौटी तो मैंने एक कटोरे में थोड़ा दूध डाल कर नीचे उसके सामने रख दिया. गुटकू जैसे सात जनम की भूखी थी, लपालप सारा दूध पी गयी और मुंह उठाकर मेरी तरफ ऐसे देखने लगी जैसे कह रही हो कि थोड़ा और दो. खैर, उस दिन के बाद से मैं सुबह-शाम कटोरे में दूध भर कर उसको देने लगी. कभी-कभी उसमें ब्रेड डाल कर रख आती और गुटकू दो मिनट में कटोरा खाली कर देती थी. एक मिट्टी के बर्तन में पानी भर कर सड़क के किनारे रख दिया और एक कार्डबोर्ड के बड़े डिब्बे में अपने कुछ पुराने कपड़े बिछा कर एक कोने में रख आयी. शाम को देखा तो गुटकू उस डिब्बे में बड़ी आराम से पसरी हुई थी. शायद उसमें उसे मेरी खुश्बू आ रही होगी. यह खुश्बू शायद उसे सुरक्षा का अहसास करा रही थी. उस दिन से गुटकू ने उस डिब्बे को अपना घर बना लिया. अब वह सारा दिन सड़क पर घूमने के बजाए ज्यादा समय उस डिब्बे में ही बैठी रहती थी.

एक सुबह मैं अपनी खिड़की पर आकर खड़ी हुई तो देखा कि नगर पालिका की गाड़ी गुटकू की मां को हमारे पड़ोसी की कार के नीचे से खींच कर निकाल रही है. रात में शायद वह इसी गाड़ी के नीचे पड़ी-पड़ी मर गयी थी. दुबली-पतली बीमार सी थी. शायद उस रात उसने जीवन से हार मान ली. पड़ोसी ने फोन करके नगर पालिका की गाड़ी बुलवायी थी. नन्ही गुटकू नगर पालिका की गाड़ी के पीछे दूर तक भागती गयी, जिसमें उसकी मां की लाश जा रही थी. मैं नीचे जाकर उसको बुला कर वापस लायी. बड़ी देर तक वह मेरी गोद में रही. उसकी आंख से आंसू नहीं बह रहे थे, लेकिन फिर भी उसका दुख अथाह था, जो मैं समझ रही थी. बेचारी तब तक सिर्फ डेढ़ महीने की ही हुई थी. हाय! उसका पूरा परिवार खत्म हो गया. भाई-बहन तो पहले ही गाड़ियों के नीचे आकर मर गये थे, आज मां भी जाती रही. नन्ही गुटकू उस चलती हुई सड़क पर बिल्कुल अकेली रह गयी थी. अभी तो वह सड़क पर रहना और चलना भी नहीं सीख पायी थी. उसको अपना खाना ढूंढना भी नहीं आता था. फिर दूसरे कुत्ते उस अकेली बच्ची के साथ कैसा व्यवहार करें, क्या पता. कहीं उसको अकेला पाकर नोच ही न डालें. ये सारी बातें सोच-सोच कर मैं परेशान थी.

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उस रोज के बाद से गुटकू की सारी जिम्मेदारी मैंने ले ली. उसे समय से खाना देना, दवाई पिलाना, समय समय पर उसके सारे इंजेक्शन लगवाना, उसके रहने के लिए छोटा सा घर बनाना, सर्दियों में उसके लिए कपड़े खरीद कर लाना और सुबह शाम उसको लाड करना. आसपास के लोग भी मेरा उसके प्रति इतना मोह देखकर उसका ख्याल रखने लगे थे. वह कई लोगों से हिलमिल गयी थी. खासतौर पर बच्चों से, जो शाम को अक्सर उसके साथ सड़क पर खेलते थे. सब गुटकू को प्यार करने लगे थे. अब कभी मैं दो-तीन रोज के लिए बाहर जाती तो सब मिलकर उसका ख्याल रखते. कोई दूध दे देता, कोई बिस्कुट तो कोई उबला अंडा या पनीर भी खिला जाता था. आज गुटकू पूरे तीन साल की हो गयी है. अन्य कुत्तों के मुकाबले ज्यादा हेल्दी और खूबसूरत दिखती है. रहती वह आज भी उसी सड़क पर है मगर उसका मेरा रिश्ता मां बेटी जैसा है. मैं नीचे उतर कर उसके पास जाती हूं तो वह मेरे पैरों में लोट-लोट कर अपना प्यार जताती है. मैं वापस लौटने को होती हूं तो अपने आगे के दोनों पैर मेरे सीने तक चढ़ा कर खड़ी हो जाती है कि अभी मत जाओ. फिर मुझे काफी देर तक उसके सिर पर हाथ फिरा कर समझाना पड़ता है कि घर के कई काम पड़े हैं, उन्हें भी तो करना है. मैं उससे बातें करती हूं तो लगता है जैसे मेरी सारी बातें वह अच्छे से समझ रही है. मैं जानती हूं स्ट्रीट डॉग्स की उम्र मात्र सात या आठ साल ही होती है. मगर मुझे लगता है कि मेरा और गुटकू का रिश्ता शायद जनमों का है. मेरे प्रति उसका प्यार अथाह है. वह बेजुबान मेरा इशारा, मेरी आहट, मेरी इच्छा, मेरी बातें जिस तरह समझती है, ऐसे तो कोई मेरा अपना भी कभी नहीं समझ पाया. मैं दुआ करती हूं कि अगले जनम में मेरी गुटकू सड़क पर नहीं, बल्कि मेरे घर में मेरी कोख से पैदा हो, मेरी बेटी बन कर.

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