लेखिका - डा. कविता सिन्हा

धीरेधीरे मल्लिका का मन सौरभ के प्रति एक अजीब लिजलिजे एहसास से भरता चला गया था. उस सौरभ के प्रति जिसे कुछ ही दिनों में उस ने अपने जीवन की सब से बड़ी उपलब्धि मान लिया था. सचमुच, सौरभ ने क्या कुछ नहीं दिया था उसे. खूबसूरत बंगला, कारें, घर में टीवी, फ्रिज और जितनी भी ऐशोआराम की चीजें हो सकती थीं, सबकुछ.

उसे तो यह भी छूट थी कि जब जी चाहे अपनी इच्छा के अनुसार वह कोई भी चीज, कभी भी खरीद सकती थी. सिर्फ लाकर से पैसे निकालने की देर थी. और तत्काल लाकर में जरूरत भर पैसे उपलब्ध न हों तो क्रेडिट कार्ड तो था ही उस के पास.

किसी भी औरत को आखिर इस से अधिक चाहिए भी क्या था.

लेकिन मल्लिका ने तो ऐसी जिंदगी की कभी कल्पना भी नहीं की थी. वह तो अपने पति के साथ उस हवा में उड़ान भरना चाहती थी जिस में दुनिया भर के सारे सुगंधित फूलों की खुशबू का समावेश हो. जहां यदि भूखा भी रहना पड़े तो भी सांसों में भरी खुशबू से मन इस कदर भरा रहे कि भूख का एहसास ही न हो.

सौरभ से जब शादी तय हो गई तब वह कितना फूटफूट कर रोई थी. रहरह कर अमर टीस बन कर उस के अंतस को बेचैन करता रहा था. सच पूछे उस से कोई तो अमर के पास उस के लिए वह सारा कुछ था जिस की आकांक्षा उस ने पाल रखी थी और अगर कुछ नहीं था तो वह सारा कुछ जो सौरभ के पास था, यानी अमीरी भरा जीवन जीने का सामान.

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