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अनु को दिल्ली आए अब 10-12 वर्ष हो गए थे. अब तो वह शिक्षा मंत्रालय में, शिक्षा प्रणाली के योजना विभाग में कार्य करने लगी थी. अत: उस स्कूल के बाद छात्रों व अध्यापकों के साथ उस की नजदीकियां खत्म हो गई थीं. अकसर अनु को वहां की याद आती थी. उस स्कूल की लगभग सभी अध्यापिकाएं….सब के जीवन में कहीं न कहीं कोई न कोई कमी तो थी ही. कोई स्वास्थ्य से परेशान तो कोई अपने पति को ले कर दुखी. कोई समाज से तो कोई मकान से.

जहां सब सुख थे, वहां भी हायतौबा. मिसेज भंडारी बड़े हंसमुख स्वभाव की महिला थीं, संपन्न, सुंदर व आदरणीय. उन्हें ही अनु कार्यभार सौंप कर आई थी. वे अकसर अपनी सास के बारे में बात करती और कहती थीं, ‘‘मेरी सास के पास कोई दुख नहीं है, फिर भी वे दुख ढूंढ़ती रहती हैं, वास्तव में उन्हें सुखरोग है.’’

एक दिन अनु दिल्ली के एक फैशनेबल मौल में शौपिंग करने गई थी. वहां अचानक उसे एक जानापहचाना चेहरा नजर आया. करीने से कढ़े व रंगे बाल, साफसुथरा, मैचिंग सिल्क सलवार- सूट, हाथों में पर्स. पर्स खोल कर रुपयों की गड्डी निकाल कर काउंटर पर भुगतान करते हुए उन के हाथ और हाथों की कलाइयों पर डायमंड के कंगन.

‘‘भानुमतीजी, आप…’’अविश्वास के बीच झूलती अनु अपलक उन्हें लगभग घूर रही थी.

‘‘अरे, अनु मैडम, आप…’’

दोनों ने एकदूसरे को गले लगाया. भानुमती के कपड़ों से भीनीभीनी परफ्यूम की खुशबू आ रही थी.

अनु ने कहा, ‘‘अब मैं मैडम नहीं हूं, आप सिर्फ अनु कहिए.’’

अनु ने देखा 4-5 बैग उन्हें डिलीवर किए गए.

‘‘आइए, यहां फूडकोर्ट में बैठ कर कौफी पीते हैं,’’ अनु ने आग्रह किया.

‘‘आज नहीं,’’ वे बोलीं, ‘‘बेटी आज जा रही है, उसी के लिए कुछ गिफ्ट खरीद रही थी. आप घर आइए.’’

अनु ने उन का पता और फोन नंबर लिया. मिलने का पक्का वादा करते हुए दोनों बाहर निकल आईं. अनु ने देखा, एक ड्राइवर ने आ कर उन से शौपिंग बैग संभाल लिए और बड़ी सी गाड़ी में रख दिए. अनु की कार वहीं कुछ दूरी पर पार्क थी. दोनों ने हाथ हिला कर विदा ली.

भानुमतीजी की संपन्नता देख कर अनु को बहुत खुशी हुई. सोचने लगी कि बेचारी सारी जिंदगी मुश्किलों से जूझती रहीं, चलो, बुढ़ापा तो आराम से व्यतीत हो रहा है. अनु ने अनुमान लगाया कि बेटा होशियार तो था, जरूर ही अच्छी नौकरी कर रहा होगा. समय निकाल कर उन से मिलने जरूर जाऊंगी. भानुमतीजी के 3-4 फोन आ चुके थे. अत: एक दिन अनु ने मिलने का कार्यक्रम बना डाला. उस ने पुरानी यादों की खातिर उन के लिए उपहार भी खरीद लिया.

दिए पते पर जब अनु पहुंची तो देखा बढि़या कालोनी थी. गेट पर कैमरे वाली सिक्योरिटी. इंटरकौम पर चैक कर के, प्रवेश करने की आज्ञा के बाद अनु अंदर आई. लंबे कौरीडोर के चमकते फर्श पर चलतेचलते अनु सोचने लगी कि भानुमतीजी को कुबेर का खजाना हाथ लग गया है. वाह, क्या ठाटबाट हैं.

13 नंबर के फ्लैट के सामने दरवाजा खोले भानुमतीजी अनु की प्रतीक्षा में खड़ी थीं. खूबसूरत बढि़या परदे, फर्नीचर, डैकोरेशन.

‘‘बहुत खूबसूरत घर है, आप का.’’

कहतेकहते अचानक अनु की जबान लड़खड़ा गई. वह शब्दों को गले में ही घोट कर पी गई. सामने जो दिखाई दिया, उसे देखने के बाद उस में खड़े रहने की हिम्मत नहीं थी. वह धम्म से पास पड़े सोफे पर बैठ गई. मुंह खुला का खुला रह गया. गला सूख गया. आंखें पथरा गईं. चश्मा उतार कर वह उसे बिना मतलब पोंछने लगी. भानुमतीजी पानी लाईं और वह एक सांस में गिलास का पानी चढ़ा गई. भानुमतीजी भी बैठ गईं. चश्मा उतार कर वे फूटफूट कर रो पड़ीं.

‘‘देखिए, देखिए, अनुजी, मेरा इकलौता बेटा.’’

हक्कीबक्की सी अनु फे्रम में जड़ी 25-26 साल के खूबसूरत नौजवान युवक की फोटो को घूर रही थी, उस के निर्जीव गले में सिल्क के धागों की माला पड़ी थी, सामने चांदी की तश्तरी में चांदी का दीप जल रहा था.

‘‘कब और कैसे?’’

सवाल पूछना अनु को बड़ा अजीब सा लग रहा था.

‘‘5 साल पहले एअर फ्रांस का एक प्लेन हाइजैक हुआ था.’’

‘‘हां, मुझे याद है. अखबार में पढ़ा था कि पायलट की सोच व चतुराई के चलते सभी यात्री सुरक्षित बच गए थे.’’

‘‘जी हां, ग्राउंड के कंट्रोल टावर को उस ने बड़ी चालाकी से खबर दे दी थी, प्लेन लैंड करते ही तमाम उग्रवादी पकड़ लिए गए थे परंतु पायलट के सिर पर बंदूक ताने उग्रवादी ने उसे नहीं छोड़ा.’’

‘‘तो, क्या वह आप का बेटा था?’’

‘‘हां, मेरा पायलट बेटा दुष्यंत.’’

‘‘ओह,’’ अनु ने कराह कर कहा.

भानुमतीजी अनु को आश्वस्त करने लगीं और भरे गले से बोलीं, ‘‘दुष्यंत को पायलट बनने की धुन सवार थी. होनहार पायलट था अत: विदेशी कंपनी में नौकरी लग गई थी. मेरे टब्बर का पायलट, मेरी सारी जिंदगी की जमापूंजी.’’

‘‘उस ने तो बहुत सी जिंदगियां बचा दी थीं,’’ अनु ने उन के दुख को कम करने की गरज से कहा.

‘‘जी, उस प्लेन में 225 यात्री थे. ज्यादातर विदेशी, उन्होंने उस के बलिदान को सिरआंखों पर लिया. मेरी और दुष्यंत की पूजा करते हैं. हमें गौड तुल्य मानते हैं. भूले नहीं उस की बहादुरी और बलिदान को. इतना धन मेरे नाम कर रखा है कि मेरे लिए उस का हिसाब भी रखना मुश्किल है.’’

अनु को सब समझ में आ गया.

‘‘अनुजी, शायद आप को पता न होगा, उस स्कूल की युवा टीचर्स, युवा ब्रिगेड ने मेरा नाम क्या रख रखा था?’’

अस्वस्थ व अन्यमनस्क होती हुई अनु ने आधाअधूरा उत्तर दिया, ‘‘हूं… नहीं.’’

‘‘वे लोग मेरी पीठ पीछे मुझे भानुमती की जगह धनमती कहते थे, धनधन की माला जपने वाली धन्नो.’’

अनु को उस चपरासी की शरारती हंसी का राज आज पता चला.

‘‘कैसी विडंबना है, अनुजी. मेरे घर धन आया तो पर किस द्वार से. लक्ष्मी आई तो पर किस पर सवार हो कर…उन का इतना विद्रूप आगमन, इतना घिनौना गृहप्रवेश कहीं देखा है आप ने?’’

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