हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी गरमियों की छुट्टियों में जब इंदु मायके आई तो सबकुछ सामान्य प्रतीत हो रहा था. बस, एक ही कमी नजर आ रही थी, गोपी कहीं दिखाई नहीं दे रहा था. वह इस घर का पुराना नौकर था. इंदु को तो उस ने गोद में खिलाया था, उस से वह कुछ अधिक ही स्नेह करता था.इंदु के आने की भनक पड़ते ही वह दौड़ा आता था. वह हंसीहंसी में छेड़ भी देती, ‘गोपी, जरा तसल्ली से आया कर... कहीं गिर गया तो मुझे ही मरहमपट्टी करनी पड़ेगी. वैसे ही इस समय मैं बहुत थकी हुई हूं.’
‘अरे बिटिया, हमें मालूम है तुम थकी होगी पर क्या करें, तुम्हारे आने की बात सुन कर हम से रहा नहीं जाता.’
इंदु मन ही मन पुरानी घटनाओं को दोहरा रही थी और सोच रही थी कि गोपी अब आया कि अब आया. परंतु उस के आने के आसार न देख कर वह मां से पूछ बैठी, ‘‘मां, गोपी दिखाई नहीं दे रहा, क्या कहीं गया है?’’
‘‘वह तो मर गया,’’ मां ने सीधे सपाट स्वर में कहा.
एक क्षण को तो वह सन्न रह गई. उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ, बोली, ‘‘पिछली बार जब मैं यहां आई थी तब तो अच्छाभला था. अचानक ऐसा कैसे हो गया, अभी उस की उम्र ही क्या थी?’’
‘‘दमे का मरीज तो था ही. एक रात को सांस रुक गई. किसी को कुछ पता नहीं चला. सुबह देखा तो सब खत्म हो चुका था.’’
गोपी के बारे में जान कर मन बड़ा अनमना सा हो उठा, सो वह थकान का बहाना कर के कमरे में जा कर लेट गई और गोपी की स्मृतियों में खो गई.