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सागर का हाथ थामे सरिता अपने बेडरूम में पहुंची तो विनय वहां नहीं था. शायद वह किसी अन्य कमरे में सोया हुआ था. गुलाबी रंग की दीवारों वाला सरिता का यह बेडरूम हल्की-हल्की रोशनी में नहाया किसी सुहागकक्ष की तरह सजा हुआ था. सामने पड़े डबलबेड पर रेशमी चादर बिछी हुई थी, जिस पर लाल गुलाब की पंखुड़ियां बिखरी हुई थीं. चारों तरफ बेला और गुलाब के फूलों की लड़ियां लटकी थीं. इत्र और फूलों की महक चहूं ओर बसी हुई थी. सरिता ने दरवाजा अन्दर से बंद कर लिया. सागर असमंजस में था... वह कुछ पूछना चाहता था...

‘सरिता... तुम...?’

‘सागर... आज तोहफे में तुमसे जो कुछ मांगू, दोगे न अपनी दोस्त को...?’ वह उसके बिल्कुल निकट आकर बोली.

‘हां...’ सागर ने लड़खड़ाती आवाज में हामी भरी.

वह सागर को खींचकर बिस्तर पर ले आयी.

‘सागर... मैं आज सचमुच दुल्हन बनना चाहती हूं... तुम मुझे सजाओगे... अपने हाथों से... सागर, मैं औरत होने का सुख पाना चाहती हूं... मुझे नहीं मालूम कि जब पहली बार पति अपनी पत्नी का घूंघट उठाता है तो कैसी अनुभूति होती है... सागर, मुझे तुम्हारे सिवा किसी ने हाथ नहीं लगाया... और आज... मैं अपना सर्वस्त्र तुम्हें समर्पित करती हूं... मैं आत्मा की गहराइयों से जिसे अपना पति मानती हूं, वह तुम हो... मैं सम्पूर्ण औरत बनने का सुख पाना चाहती हूं... सागर...’ वह उसके सीने से लग गयी.

‘सरिता... ये सब ठीक नहीं है...’ उसने समझाना चाहा.

‘नहीं सागर... अगर ये पाप है तब भी मुझे इसी की कामना है.... मुझे आज सुकून चाहिए... मैं थक गयी हूं... मैं कुछ दिन आराम से जीना चाहती हूं... तुम्हारी बाहों में... आंसुओं से दूर... मुझे कुछ दिनों की खुशी दे दो... यही मेरा तोहफा होगा, सागर...’ उसने विनती की.

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