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लेखक-लीला रामचंद्रन

राहुल के लिए मेज पर नाश्ता और हौटकेस में दोपहर का खाना रख कर जब तनु रसोईघर से बाहर निकल कर कमरे में दाखिल हुई तब राहुल कोई धुन गुनगुनाता, टाई की नौट ठीक करता हुआ बोला, ‘‘तनु, मेज पर पड़ी फाइलें ब्रीफकेस में रख दो और सूटकेस बंद कर के चाबी ब्रीफकेस में डाल देना.’’

राहुल का कहा सुन तनु को यह सम झते देर न लगी कि मुंबई जाने के लिए वह दफ्तर से सीधा एअरपोर्ट चला जाएगा. वह तुरंत बोली, ‘‘मुंबई से  कब लौटोगे?’’

‘‘4-5 दिनों का काम है. काम खत्म करने पर कोलकाता जाने की सोच रहा हूं. फिर भी जाने से पहले फोन जरूर कर दूंगा. पर अचानक यह सवाल क्यों पूछा जा रहा है? क्या मैं जान सकता हूं?’’

‘‘तुम्हारी बिटिया रानी की खातिर पूछ रही हूं,’’ तनु ने हंस कर कहा,  तो राहुल पलट कर बोला, ‘‘कभी तुम्हें भी इंतजार हुआ करता था, पर अब तुम्हें फुरसत ही नहीं होती.’’

राहुल का इशारा तनु की ‘टूरिस्ट गाइड’ की नौकरी और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की संगीतमय शामों की ओर था. यह तो तनु सम झ गई थी, परंतु राहुल की अभिव्यक्तियों में सहजता या असहजता के भावों को पहचानना बहुत मुश्किल था.

कई महीनों से मन में घुमड़ते सवालों के बो झ में राहत पाने के मकसद से ही उस ने पूछ लिया, ‘‘राहुल, तुम्हें यह जानने की फुरसत भी तो नहीं होती कि यह सब मैं क्यों करती हूं. पार्टियों में जाते वक्त ही तुम्हें मेरा खयाल आता है, वरना तुम्हें तो यह भी जानने की फुरसत नहीं होती कि घर में क्या हो रहा है.’’

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