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घर पहुंच कर वाणी अरुण और रेणु के लिए चाय बनाने ही लगी कि देखा चायपत्ती खत्म हो गई है. ‘ओह, पत्ती खत्म हो गई? लेकिन सुबह तो थी. वह मन ही मन भुनभुनाई. अब चाय बनाने के लिए पत्ती तो थी नहीं, इसलिए उस ने अरुण और रेणु का खाना ही परोस दिया, वैसे भी वे लोग भूखे थे. सोचा, चाय बाद में बना देगी. पास में ही एक किराना स्टोर है, फोन कर देने पर कुछ देर में ही वह सामान घर पर भिजवा देता है. वाणी किचन के छोटेमोटे सामान वगैरह उसी दुकान से मंगवाती थी.  अच्छी सर्विस देता है वह दुकान वाला.

अभी वह अपने मांपापा को खाना दे कर कमरे से बाहर निकली ही थी कि मालती कहने लगी, “बहू, ऐसा कब तक चलेगा?”

“क..क्या हुआ मां जी?” वाणी ने अचकचा कर पूछा.

“यही की हमेशा तुम्हारे मांबाप यहां चले आते हैं. क्या अच्छा लगता है बेटी के घर बारबार आना? अरे, हमारे संस्कार में तो बेटी के घर का एक बूंद पानी पीना भी पाप माना जाता है और ये लोग... क्या जरा भी शर्मलाज नहीं है तुम्हारे मांबाप को? अब तो पड़ोसी भी पूछने लगे हैं. सच कहें, तो शर्म तो अब हमें आने लगी है.”

मालती की बात सुन वाणी अवाक थी. उसे लग रहा था काटो तो खून नहीं. वह सास को चुप कराना चाहती थी कि प्लीज, चुप हो जाओ.  मगर मालती बोलती ही जा रही थी जो मन, सो.  उधर अरुण और रेणु पहला कौर मुंह में डालने ही जा रहे थे कि मालती की कड़वी बातें सुन उन का हाथ का खाना हाथ में ही रह गया. ‘कहीं मांपापा ने सुन तो नहीं लिया...’ वह भागी उधर.

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