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डायबिटीज़ के मरीज अरुण की भूख जब बरदाश्त के बाहर होने लगी और वे आवाज दे कर बोलने ही जा रहे थे कि रेणु ने आंखें तरेरीं, “शर्म है कि नहीं कुछ आप को? बेटी के घर आए हो और भूखभूख कर रहे हो, जरा रुक नहीं सकते? यह आप का अपना घर नहीं है, बेटी की ससुराल आए हैं हम,  समझे?”

“अरे, तो क्या हो गया? क्या बेटी के घर में भूख नहीं लग सकती? भूख तो भूख है, कहीं भी लग सहती है,” अरुण ने ठहाका लगाया, “तुम भी न रेणु, कुछ भी सोचती हो. यह हमारी बेटी का घर है, किसी पराए का नहीं.”

यह सुन कर रेणु भुनभुनाते हुए कहने लगी कि इसलिए वह यहां आना नहीं चाहती है. मगर वाणी  है कि समझती ही नहीं. जाने क्या सोचते होंगे इस की ससुराल वाले?

“अब क्या सोचने बैठ गईं? यही तुम्हारी बड़ी खराब आदत है. किसी भी बात को सोचतेसोचते पता नहीं उसे कहां से कहान ले जाती हो. ऐसा कुछ नहीं है रेणु. कोई कुछ नहीं सोचता,” अरुण बोल ही रहे थे, तभी खाने की प्लेट लिए वाणी ने कमरे में प्रवेश किया.

“सौरी पापा, वह मम्मी जी, पापा जी को खाना खिला रही थीं. आप लोगों को भी भूख लगी होगी. आप खा लो. मम्मी आप भी पापा के साथ ही बैठ जाओ. मैं तब तक और फुलके ले कर आती हूं,” कह कर हड़बड़ाई सी वाणी फिर किचन में भागी. लेकिन रेणु कहने लगी कि बेकार में  बेटी परेशान हो रही है.  क्या वे लोग कहीं बाहर नहीं खा सकते थे? कितने तो होटल हैं शहर में. जाने क्या सोचते होंगे इस की ससुराल वाले कि जब देखो इस के मांबाप यहां आ जाते हैं.

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