पिछली बार जब डाक्टर से दिखाने यहां आए थे और डाक्टर ने अरुण को आलूचीनी खाने से पहरेज करने को कहा, तब वाणी ने आलू हटा कर अरुण की थाली में सहजन ज्यादा परोस दिया था. तब कैसे मालती ने सब से नजरें बचा कर उन की थाली से सारे सहजन निकाल कर आलू भर दिया था. सब देखा था वाणी ने पर कुछ बोल नहीं पाई थी. ऐसा कितनी बार हुआ है जब मालती ने ऐसा किया था. घरगृहस्थी की छोटीछोटी बातें बता कर वह आलोक को परेशान नहीं करना चाहती थी. मांबेटे के बीच झगड़ा करवा कर वह दोषी नहीं बनना चाहती थी और इसी बात का मालती फायदा उठाती थी. यही लोग जब उस के मायके जाते हैं, तो कैसे रेणु और अरुण उन के स्वागत में जुट जाते हैं. उन के लिए तरहतरह के पकवान तैयार होने लगते हैं कि बेटी की ससुराल वाले आ रहे हैं और एक ये लोग हैं. यह सब सोच कर वाणी का मन कुपित हो उठा.
जानती है, आलोक ऐसा बिलकुल नहीं है. वे तो अरुण और रेणु को अपने मांपापा जैसा ही मानसम्मान देते हैं. लेकिन मालती अपने बेटे को जोरू का गुलाम समझती है. लेकिन इस बात से आलोक को कोई फर्क नहीं पड़ता है. आलोक अपनी मां के अक्खड़ व्यवहार से अच्छी तरह से परिचित है. कभीकभी तो इतनी चिढ़ होती है उसे कि मन करता है यह घर छोड़ कर कहीं और रहने चला जाए. वाणी ही है जो आलोक के गुस्से को दबा कर रखती.
दिवाली के त्योहार पर सब के लिए नए कपड़े और उपहार का समाना खरीदते समय वाणी ने अपने मांपापा के लिए नए कपड़े खरीद लिए थे. सेम वैसी ही साड़ी उस ने रेणु के लिए भी खरीदी जैसी मालती के लिए. लेकिन यह बात मालती की आंखों में चुभ गई. घुमा कर साड़ी फेंकती हुई बोली थी कि उसे यह साड़ी नहीं चाहिए क्योंकि उस का ओहदा रेणु से बड़ा है. गुस्से से आलोक ने आगे बढ़ कर बोलना चाहा लेकिन वाणी ने उस का हाथ पकड़ कर अंखों से इशारा किया कि प्लीज, जाने दो.