कानपुर की चौड़ी सड़क पर आलोक की टैक्सी भाग रही थी. शायद आधे घंटे में वह अपने घर पहुंच जाएगा. आधा जागा शहर रात के 12 बजे भी. उसे लगता था जैसे यह जगार उस के स्वागत हेतु ही थी. आलोक 8 साल पहले इस शहर को छोड़ कर कनाडा जा बसा था. 1 साल पहले वह मां की मृत्यु के बाद जब यहां आया था तब भी यह शहर उसे ऐसा ही लगा था. आज भी सबकुछ उसी तरह है...सोचतेसोचते उस की टैक्सी घर के दरवाजे पर रुक गई.
पापा इमरजैंसी लाइट ले कर उस का इंतजार कर रहे थे. पापा को आधी रात में यों खड़े देख आलोक की आंखें उमड़ आईं. सामान ले कर अंदर आ गया. पैर छुए तो पापा ने झुक कर उठाया और छाती से लगा लिया. अंधेरे में ही उसे आभास हुआ कि कोई स्त्री पापा के समीप खड़ी है. उस के हाथ में भी इमरजैंसी लाइट थी. शायद कोई रिश्तेदार होगी, वह यह सोच ही रहा था कि लाइट आ गई. पूरे उजाले में स्त्री को वह साफ देख पा रहा था. अभिवादन के लिए आलोक के हाथ उठ गए.
‘‘अरे, ये तो प्रीतो आंटी हैं,’’ चौंक पड़ा था.
अचानक पत्रों का वह सिलसिला याद आ गया, ताऊजी का वह पत्र- ‘आलोक, तेरा बाप न जाने किस आवारा विधवा को घर ले आया है. तेरी मां की मृत्यु को अभी साल ही हुआ है. क्या औरत के बिना वह रह नहीं सकता? थू है बुढ़ापे की ऐसी जवानी को. तू आ कर अपनी आंखों से बाप की करतूतों को देख ले.’