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Writer- Reeta Kumari

‘‘धीरेधीरे मम्मी और पापा के प्रति मेरे मन में एक गहरी असंतुष्टि  हलचल मचाए रहती और एक अघोषित युद्ध का गंभीर घोष मेरे अंदर गूंजता रहता. मैं मम्मीपापा की सुखशांति को, मानसम्मान को यहां तक कि अपनेआप को भी तहसनहस करने के लिए बेचैन रहती. हर वह काम लगन से करती जो मम्मीपापा को दुखी करता... मेरी उद्दंडता और आवारागर्दी की कहानी पापा तक पहुंच कर उन्हें दुखी कर रही है, यह जान कर मुझे असीम सुख मिलता. आज भी मेरी वही मानसिकता है, दूसरे को चोट पहुंचाना. शायद इसी कारण मैं ऐसी हूं.

‘‘मेरे बीमार पड़ने पर जिस प्यार और अपनेपन से आप ने मेरी देखभाल की वह मेरे दिल को छू गया. मुझे लगा आप ही वह पात्र हैं जिस के सामने मैं अपने दिल की व्यथा उड़ेल सकती हूं. अब सबकुछ जानने के बाद आप से मिली सलाह ही मेरी पथप्रदर्शक होगी. इसलिए प्लीज, आंटी, मेरी मदद कीजिए. मैं बहुत कन्फ्यूज्ड हूं.’’

तन्वी सबकुछ उगल चुपचाप बैठ गई. उस के गालों पर ढुलक आए आंसुओं को अपने आंचल से पोंछ कर मैं बोली थी, ‘‘कितनी मूर्ख हो तुम. बिना गहराई से परिस्थितियों का अवलोकन किए, तुम ने अपनी मां को ही अपना दुश्मन मान लिया और उन के दुखदर्द और शोक का कारण बनी रहीं. अपनी मम्मी की तरफ से सोचो कि वे अपनी मरजी से शादी कर, अपने सारे रिश्तों को खो चुकी थीं. वे मजबूर थीं. आवश्यकताओं की लंबी फेहरिस्त, दिल्ली जैसे महानगर के बढ़ते खर्चे, तुम्हारी देखभाल, सभी के लिए ज्यादा से ज्यादा पैसों की जरूरत थी और इस के लिए वे जीतोड़ कोशिशें कर रही थीं.

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