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Writer- Reeta Kumari

तन्वी की रूखी और कठोर वाणी से मैं तिलमिला उठी, थोड़ी देर को रुकी, फिर अपने कमरे में वापस लौट गई. फ्रिज से सूप निकाल कर गरम कर बे्रड के साथ खाने बैठी तो मुझे तन्वी का मुरझाया चेहरा याद आ गया. सोचा, पता नहीं उस ने कुछ खाया भी है या नहीं. सूप लिए हुए एक बार फिर मैं उस के पास जा पहुंची.

‘‘तुम्हें शायद मेरा यहां आना पसंद न हो, फिर भी मैं थोड़ा सा गरम सूप लाई हूं, पी लो.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं...’’ तन्वी धीरे से बोली और सूप पीने लगी. सूप समाप्त करने के बाद, उस के चेहरे पर बच्चों जैसी एक तृप्ति भरी मासूम मुसकान दौड़ गई.

‘‘थैंक्स... मिसेज मीनू, सूप बहुत ही अच्छा बना था.’’

अब मुझ से रहा नहीं गया सो बोली, ‘‘कम से कम मेरी उम्र का लिहाज कर. तुम मुझे आंटी तो कह ही सकती हो.’’

उस की शांत और मासूम आंखों में फिर से वही विद्रोही झलक कौंध उठी.

‘‘मैं किसी रिश्ते में विश्वास नहीं करती इसलिए किसी को भी अपने साथ रिश्तों में जोड़ने की कोशिश नहीं करती.’’

उस की कुटिल हंसी ने उस की सारी मासूमियत को पल में धोपोंछ कर बहा दिया.

मैं भी उस का सामना करने के लिए पहले से ही तैयार थी.

‘‘हर बात को भौतिकता से जोड़ने वाले नई पीढ़ी के तुम लोग क्या जानो कि आदमी के लिए जिंदगी में रिश्तों की क्या अहमियत होती है. अरे, रिश्ता तो कच्चे धागे से बंधा प्यार का वह बंधन है जिस के लिए लोग कभीकभी अपने सारे सुख ही नहीं, अपनी जिंदगी तक कुरबान कर देते हैं.’’

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