यूरोप से अपनी पढ़ाई पूरी कर भारत लौटते ही रितेश को एक बहुत बड़ी कंपनी से जौब का औफर आया और उस ने स्वीकार कर लिया. कंपनी की तरफ से ही उसे घर और गाड़ी भी मिली थी. उस का जो सपना था इंजीनियर बनने का वह पूरा हो चुका था. लेकिन अब भी उस के जीवन में एक कमी थी और वह था थी का प्यार. एक रोज बड़ी हिम्मत कर उस ने अपने दिल की बात रागिनी तक पहुंचा ही दी यह बोल कर कि ‘क्या हम अपनी दोस्ती को प्यार का नाम दे सकते हैं?’
उस की बात पर मुसकराते हुए रागिनी ने जवाब दिया था, ‘मुझे लगता है कि तुम्हें शरत के उपन्यास पढ़ने चाहिए, स्त्रीमन पढ़ना सीख जाओगे,’ रागिनी का इशारा पा कर वह उस के कदमों में बैठ कर ‘आई लव यू रागिनी, विल यू मैरी मी?’ बोल कर लाल गुलाब बढ़ाया था और ‘हां,’ बोल कर उस लाल गुलाब को रागिनी ने अपने सीने से लगा लिया था. लेकिन यह बात जानने के बाद सुषमा ने घर में कुहराम मचा दिया था. वह कहने लगी कि रागिनी को बाहर पढ़ने भेज कर उन्होंने गलती कर दी. मदन भी मन ही मन बेटी को गलत समझ बैठे थे. दीपक भी यह कह कर उस पर दोषारोपण लगाने लगा था कि पढ़ने के बहाने वह वहां मौज कर रही है. लेकिन रितेश और उस के परिवार वालों से मिलने के बाद उन के विचार बदल गए. इतने पैसे वाले होने के बाद भी उन में जरा भी घमंड नहीं था और रितेश तो कोहिनूर हीरा था, हीरा. सब से बड़ी बात कि दोनों एकदूसरे से प्यार करते हैं तो और क्या चाहिए था उन्हें. मगर बोलने वाले यह बोलने से बाज नहीं आए कि ‘लड़के का न जात का पता है न घर्म का, और चले हैं बेटी ब्याहने.’ असल बात तो यह थी कि लोगों को जलन होने लगी कि बेटी पढ़लिख कर इतनी बड़ी इंजीनियर बन गई. लोगों की बातों में आ कर रागिनी की मां और भाई भी इस शादी का विरोध करने लगे थे. लेकिन मदन ने ऐसी झाड़ लगाई उन्हें कि फिर कुछ बोल नहीं पाए. बोलने वालों को भी मदन ने दोटूक शब्दों में जवाब दे दिया था कि नहीं मानते वे जातपांत, ऊंचनीच. बेटी खुश है, तो वे भी खुश हैं. दोनों परिवारों की सहमति से जल्द ही दोनों परिणय सूत्र में बंध गए.
रागिनी और रितेश की बहुत सी आदतें मिलतीजुलती थीं, जैसे की दोनों ही शांत स्वभाव के थे. दोनों प्रकृति से जुड़े हुए थे. और सब से बड़ी बात यह कि पतिपत्नी होने के बावजूद दोनों एकदूसरे को स्पेस देते थे. उन का सोचना था कि भले ही दोनों पतिपत्नी हैं, पर एकदूसरे को स्पेस देना जरूरी है. क्योंकि, दोनों की अपनी अलगअलग जरूरतें होती हैं, अपनीअपनी फैमिलीज के साथ समय गुजारने का मन होता है और कई बार पर्सनल रीजन भी होते हैं. एकदूसरे को स्पेस देने से रिलेशनशिप में हमेशा ताजगी बनी रहती है.
शादी के इन 4 सालों में कभी भी दोनों ने एकदूसरे पर अपनी मरजी थोपने की कोशिश नहीं की. उन का मानना था कि हम पतिपत्नी होने से पहले एक इंसान हैं और हमें अपनी ज़िंदगी अपनी तरह से जीने का हक है. और यही इन की खुशहाल गृहस्थी का राज था. रागिनी के मांपापा पटना में रहते हैं और उस का भाई अपने परिवार के साथ दूसरे शहर में रहता है. रागिनी के पापा एक सरकारी स्कूल में टीचर थे. वे रिटायर्ड हो चुके हैं. जब कभी छुट्टी मिलती है, रागिनी उन से मिलने पटना जाती रहती है. वे भी यहां दिल्ली अपनी बेटी के घर आते रहते हैं. रितेश अपने मांपापा का एकलौता बेटा है. जबकि, उस के पापा 4 भाई हैं. उन का अपना कपड़ों का व्यापार है. सब साथ मिल कर अपना बिजनैस चलाते हैं. रितेश को शुरू से ही अपने पापा के व्यापार में कोई रुचि न थी. वह तो कुछ अलग ही बनना चाहता था, इसलिए उस ने साफतौर पर कह दिया था कि उसे पारिवारिक व्यवसाय में रुचि नहीं है. वह तो पढ़लिख कर कुछ बनना चाहता है. रितेश के पापा ने कभी उस पर अपनी मरजी नहीं थोपी, बल्कि, उसे वही करने दिया जो उस ने चाहा.
रागिनी को किचन में काम करते देख रितेश को शरारत सूझी और जा कर उस ने उसे अपनी बांहों में भर कर चूम लिया. “ऊंह, क्या कर रहे हो रितेश, छोड़ो मुझे, वरना मैं तुम्हारे गाल पर आटा मल दूंगी, फिर नहाना दोबारा जा कर“ हंसते हुए वह बोली.
“मल दो,लो मलो न,” अपना गाल उस के करीब ले जाते हुए रितेश बोला, “तुम्हारे हाथ से तो मैं अपने गाल पर मिट्टी भी मलवा लूं.” लेकिन तभी रागिनी का फोन आ गया और वह अपना फोन उठाने को लपकी यह सोच कर कि जरूर उस कमला का फोन होगा, कहेगी तबीयत ठीक नहीं है, आज नहीं आऊंगी. लेकिन जब उस ने अपनी मां का फोन देखा तो चिहुंक उठी.
“हैलो मां, प्रणाम. कैसी हो आप और पापा कैसे हैं? ठीक हैं? क्या…दीपक भैया को बेटा हुआ. अरे वाह, यह तो बड़ी खुशी की बात है. कब हुआ…” रागिनी पूछ ही रही थी कि रितेश ने उस के हाथ से फोन छीन लिया. “रितेश…….. फोन दो न, मां से बात करनी है मुझे.” लेकिन रितेश यह बोल कर दूसरे कमरे में चला गया कि अब उसे सासुमां से बात करने दो. रितेश की अपने सासससुर से खूब पटती थी. अकसर वे फोन पर गपें लगाते और ठहाका मार कर हंसते. रितेश ने उन्हें थोड़ाबहुत गुजराती बोलना भी सिखा दिया था. कुछ देर बात कर वह फोन रागिनी को थमा कर औफिस जाने के लिए तैयार होने लगा. फोन पर अपनी मां से बातें करते हुए वह फटाफट हाथ भी चला रही थी क्योंकि रितेश को जल्दी औफिस के लिए निकलना था. “अच्छा, मां, अब मैं फोन रखती हूं. शाम को औफिस से आ कर इत्मीनान से बात करूंगी. हां, हां, मैं भैयाभाभी से बात कर लूंगी, आप चिंता मत करो. पापा को मेरा प्रणाम कहना,” कह कह रागिनी ने फोन रख दिया और नाश्ता परोसते हुए कहने लगी, “एक बेटी तो थी ही, एक बेटा भी हो गया. अच्छा है अब भैया का परिवार पूरा हो गया.“