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‘‘अब के बरस भेज भइया को बाबुल सावन में लीजो बुलाय रे...’’ आशा भोंसले की आवाज में गाए इस गीत के बोलों को सुन कर मायके जाने के रोमांच से अंशिका का मन मयूर नाच उठा. सूटकेस में कपड़े जमातेजमाते ही वह प्रफुल्लता और उल्लास से भर उठी और गाने के बोलों के साथसाथ स्वयं भी गुनगुनाने लगी. ऐसा लग रहा था मानो उड़ कर पहुंच जाए अपने मायके. अम्माबाबूजी से तो जब भी बात करो, वे सदैव एक ही रट लगाए रहते, ‘‘कब आएगी बेटा, ऐसा लगता है तू तो मायके का रास्ता ही भूल गई है.’’

गलत भी तो नहीं थे मांबाबूजी, क्योंकि अनु और कनु के कारण वह पिछले 4 साल से घर से निकल ही नहीं पाई. एक के बोर्ड एक्जाम समाप्त, तो दूसरे के प्रारंभ. कैसे सोच पाती वह अपने जाने के बारे में. ऊपर से पति अस्मित की नौकरी, जिस में न जाने का समय और न आने का. लाख चाह कर भी वह मायके यानी लखनऊ जाने के बारे में सोच तक नहीं पाई.

कनु इंजीनियरिंग कर के प्लेसमेंट ले कर विदेश चला गया. एक माह पूर्व ही बेटी अनु भी मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट औफ सोशल साइंस से पीजी करने चली गई थी. सो, अब उस की बच्चों के प्रति जिम्मेदारियों से उसे थोड़ी राहत मिल पाई थी.

अस्मित उस के अम्माबाबूजी के प्रति लगाव को समझते थे. सो, इस बार जब उन्हें 10 दिन की ट्रेनिंग पर दिल्ली जाना था तो, वे स्वयं ही बोले, ‘‘अंशु तुम चाहो तो इन 10 दिनों के लिए लखनऊ चली जाओ अम्माबाबूजी के पास. कब से बुला रहे हैं वे तुम्हें. मेरे हिसाब से लखनऊ जाने के लिए इस से अच्छा समय नहीं मिलेगा तुम्हें.’’

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