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“अरे, दीप्ति, तू यहां?” मार्केट में अपनी दोस्त को देख कनक चहक उठी. फिर शिकायती लहजे में बोली, “रहती कहां हो आजकल, मैडम? कुछ फोनवोन भी नहीं. लगता है बहुत बिजी हो गई हो?”

“नहीं यार, ऐसी कोई बात नहीं. बस, टाइम ही नहीं मिलता. अच्छा वह सब छोड़, यह बता, आंटी, अंकल और चिंटू, सब कैसे हैं?”

“सब टनाटन,” कनक हंसी और हाथ के इशारे से बोली कि चल उस कौफी शौप में बैठ कर आराम से बातें करते हैं. 2 कप कौफी और्डर कर कनक दीप्ति की तरफ देखते हुए बोली, “काफी स्ट्रैस लग रही है. क्या हुआ, सब ठीक है?”

“कुछ नहीं, यार. थक गई हूं ज़िंदगी से. लगता है ये जौबवौब छोड़छाड़ कर आराम से घर बैठ जाऊं. तू ही बता, अब संडे को भी औफिस जाना पड़े, तो चिढ़ तो होगी ही न. आज बड़ी मुश्किल से छुट्टी मिली तो घर का सामान लेने निकली हूं. सच कहूं, तो प्राइवेट जौब वालों की और भी दिक्कत है. निचोड़ कर काम लेते हैं और छुट्टी भी नहीं देते,” सिर पर बल देती हुई दीप्ति बोली.

“सो तो है,” कौफी का घूंट भरती हुई कनक बोली, “वैसे, क्या सरकारी और क्या प्राइवेट जौब, सब जगह यही हाल है, यार. मुझे ही देख न, सुबह 10 बजे की निकली, शाम को 7-8 बजे घर पहुंचती हूं, यानी कि 9 से 10 घंटे की ड्यूटी. थक कर ऐसी चूर हो जाती हूं कि घर पहुंच कर कुछ काम करने का मन ही नहीं होता. एक संडे की छुट्टी मिलती है तो थोड़ा आराम मिल जाता है. लेकिन उस में भी क्या आराम…चिप्स के पैकेट की तरह आधा संडे तो हवा की तरह वैसे ही निकल जाता है और बाकी बचा आधा दिन घर के पैंडिंग कामों में निकल जाता है,” अपना दुखड़ा सुनाती कनक बोली.

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