मैं और बाबूजी दीदी और प्रियांशु को ले कर वहां गए थे. एक बड़ा सा मठ था वह, पुराना सा मंदिर जिस के महंत ने जीजाजी को अपना शिष्य बनाया था. बाबूजी ने बहुत समझया था, उस महंत के पांव भी पकड़ लिए थे कि वह जीजाजी को आजाद कर दे पर जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो कोई क्या करे. उसे तो बैठेबिठाए चेले के रूप में एक मुफ्त का नौकर मिल रहा था.
जीजाजी तो बस एक ही रट लगाए थे कि वह बुद्ध की तरह सत्य की खोज में निकले हैं. अब माया के बंधन में नहीं फंस सकते. महंत भी पिताजी को समझने लगा कि जो माया के बंधनों को तोड़ कर निकल आया हो फिर उसे माया की तरफ खींचना पाप है. हां, अगर इस की पत्नी भी चाहे तो साध्वी बन कर यहीं रह सकती है.
उस की बातों से मुझे घृणा सी हो गई थी. मैं ने जीजाजी से पूछा था, ‘जीजाजी, एक बात बताएंगे, आप दुनिया से अलग तो हो रहे हैं लेकिन खाएंगे क्या... इसी दुनिया का अन्न न. आप के ये गुरु पानी किस का पीते हैं... इसी दुनिया का या किसी और संसार से आता है इन के पीने के लिए. अरे, क्या ईश्वर भी तलाशने की कोई चीज है? क्या ईश्वर कोई वस्तु है, जिसे आप खोजने जा रहे हैं? वह तो इनसान के कर्म में, उस की चेतना में, जनजन में समाया है, फिर उसे खोजना क्या... क्यों, इन ढोंगी परजीवियों के जाल में फंस कर आप अपनी गृहस्थी तबाह कर रहे हैं. इस छोटे से बच्चे, अपने व्यथित बूढे़ बाप को छोड़ कर आप को कहीं और ईश्वर नजर आ रहा है क्या? इतने पर भी समझ नहीं है आप को कि यह दीदी को भी यहीं रहने के लिए कह रहा है.’