कितना मुश्किल हो जाता है कभीकभी कोई निर्णय ले पाना. जिंदगी जैसे किसी मुकाम पर पहुंच कर आगे ही नहीं बढ़ना चाहती. बस, दिल चाहता है कि वक्त यहीं रुक जाए और हम आने वाले उस वक्त से अपना दामन बचा सकें, जो अपने साथ पता नहीं कितने अनसुलझे सवाल ले कर आ रहा है. परंतु ऐसा कहां हो पाता है, किसी के चाहने से वक्त भला कहीं रुकता है. उस की तो अपनी ही गति है. जिंदगी के सवाल चाहे जितने उलझे हों परंतु उन के उत्तर तो हमें तलाशने ही पड़ते हैं.
‘‘क्या बात है, तुम सो क्यों नहीं रहे...’’ पत्नी की आवाज सुन कर थोड़ी देर के लिए मेरी विचार तंद्रा भंग हो गई, ‘‘क्या बात है, आफिस में कुछ हुआ है क्या?’’ उसे मेरी बेचैनी की वजह नहीं समझ में आ रही थी.
‘‘नहीं, बस, यों ही... नींद नहीं आ रही, तुम सो जाओ, शुभी,’’ मैं ने धीरे से थपकी दे कर उसे आश्वस्त किया तो दिनभर की थकीमांदी शुभी कुनमुना कर सो गई.
घड़ी की टिकटिक निरंतर अपनी आवाज से मुझे बीतते वक्त का बोध करा रही थी. क्या होगा कल...कल जीजाजी फिर मुझ से पूछेंगे तब क्या जवाब दूंगा मैं उन्हें...मेरी नजरों के सामने उन की कातर छवि घूम गई थी. पता नहीं कैसे वह कांपते पैरों से मेरे आफिस में आए थे. कितने भीगे हुए स्वर में उन्होंने कहा था, ‘मुन्ना, अब मैं थक गया हूं...तन से भी और मन से भी. जिंदगी में जो गलती मैं ने की थी उस का प्रायश्चित्त तो शायद ही हो पर एक बार, सिर्फ एक बार मैं सरिता से मिलना चाहता हूं. मन में अब इतनी शक्ति शेष नहीं है कि मैं खुद उस के सामने जा सकूं. मुन्ना, बस एक बार मुझे उस से मिलवा दे. फिर शायद मैं सुकून से मर सकूं.’
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