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उस दिन भी इतवार था. अब न वह था न उस की मां, न उस के पिता न पंचम की मां और न ही पंचम के पिता. केवल थी तो पंचम. इतवार को कुछ भी बुरा नहीं कहूंगी, जो होना था सो हो गया. न जाने कितने इतवारों को उन का कलेजा बाहर निकलनिकल कर आया होगा. हर इतवार कैक्टस की भांति चुभता था तब. एक दूसरे से अधिक. मानो उन में होड़ लगी हो. यह बात काफी पहले की है. शनिवार की रात थी. 11 बज चुके थे. घर के सभी सदस्य सोने की तैयारी में जुटे थे. आज पंचम भी चैन से सोने वाली थी. खुश थी क्योंकि कल उस बूढ़े खूसट हितेश अंकल के यहां रियाज के लिए नहीं जाना पड़ेगा. हितेश साहब एक मशहूर मंच गायक थे. वे अधिकतर बड़ीबड़ी पार्टियों, राजनीतिक सभाओं में गाया करते थे. उन्हें रफीजी तथा मुकेशजी तो नहीं कह सकते लेकिन दिल्ली में वे काफी प्रसिद्ध थे. पंचम बिस्तर पर लेटीलेटी यही सोच रही थी. कम से कम कल तो अरमान के लिए दुखदाई नहीं होगा. उसे अपनी मां की जलीकटी बातें नहीं सुननी पड़ेंगी. अरमान को लोधी टूम जा कर नहीं बैठना पड़ेगा. खुद से अधिक उस का मन अरमान के लिए रोता था. पंचम सोच ही रही थी कि सामने मां हाथ में घड़ी लिए खड़ी थीं. मां ने घड़ी का अलार्म लगाते हुए कहा, ‘पंचम, लो, रख लो सिरहाने.’

पंचम की छोटी बहन सप्तक झट से बोली, ‘कल हितेश अंकल के घर तो जाना नहीं, फिर अलार्म क्यों?’ ‘मानती हूं, पर इस से रियाज तो नहीं बंद हो जाता?’ मां ने तुरंत उत्तर दिया. ‘दीदी भी न, हफ्ते में एक इतवार ही तो मिलता है देर तक सोने के लिए. बस, शुरू हो जाती हैं सुबहसुबह तानसेन की औलाद की भांति,’ सप्तक खीज कर बोली. ‘तू क्यों चहक रही है. तू तो वैसे भी भांग पी कर सोती है. तुझे जगाने के लिए अलार्म तो क्या ढोल भी कम है.’

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‘बड़बड़ मत कर, कान में रुई डाल कर सो जा. तू क्या सोचती है दीदी का मन नहीं करता देर तक सोने का. मां का पता है न और उन का संगीत के प्रति जनून भी. तभी तो हम सभी के नामों में भी सुर और ताल बसे हैं. बेकार की बातें क्यों करती रहती हो? ह्वाई डिसरिस्पैक्ट टू संगीत, समझी? ओके, मैं तो चला बाहर सोने,’ भाई कोमल ने पल्ला झाड़ते हुए व्यंग्यपूर्वक कहा.

‘प्लीज ममा, मत लगाओ अलार्म. घड़ी अपने कमरे में रख लो, आप ही जगा देना दीदी को?’ सप्तक ने मां से विनती करते हुए कहा. ‘मां? मां जगाएगी? आज तक कभी देखा है मां को जल्दी उठते? मां ने कभी किसी का नाश्ता तक तो बनाया नहीं. दीदी न होतीं तो कभी नाश्ता नहीं मिलता, समझी?’  कोमल, पंचम की पैरवी करता बाहर चला गया. इतवार को हितेश साहब के घर न जाने की सोच से पंचम की नींद उड़ गई. लेटेलेटे पंचम उस दिन को कोसने लगी जिस दिन ब्लौक में मिसेज तोषी के यहां  एक धार्मिक आयोजन में उस ने एक गीत गाया था. न उस दिन गीत गाती, न ही बूढ़े खूसट हितेश साहब की नजरों में आती. कैसे लोगों से पूछपूछ कर ढूंढ़ ही लिया था. हितेश साहब ने मां को. कितनी विनम्रता से हाथ जोड़ते हुए वे बोले, ‘कल्याणीजी, आप की बेटी पंचम की बड़ी सुरीली आवाज है. शहद में डूबे स्वरों सी मिठास है गले में उस के. जैसा नाम वैसे ही सधे सुर निकलते हैं गले से.’

‘आप ने ठीक ही कहा, हितेश साहब. तोहफे के साथसाथ सामर्थ्य भी है. उसे संवारनेउभारने के लिए रियाज बहुत जरूरी है. मेरी तो यही कोशिश रहती है कि वह अधिक से अधिक रियाज करे. बच्चों को कुछ बनाने के लिए मांबाप को भी मेहनत करनी पड़ती है,’ कल्याणी ने बड़े स्वाभिमान से कहा. ‘यह तो आप सही कहती हैं. गुस्ताखी के लिए माफी चाहता हूं. कल्याणीजी, बात ऐसी है, अगले वर्ष मोतीबाग में एक गीतसंगीत का भव्य कार्यक्रम रखा गया है. अगर पंचम वहां कुछ गा दे तो, उसे प्रचार भी मिल जाएगा और उस का उत्साह भी बढ़ेगा. आप का क्या विचार है?’ ‘हांहां, क्यों नहीं, आप ठीक कहते हैं,’ कल्याणी ने पंचम से बिना पूछे हां कर दी. पंचम को गाने में कोई आपत्ति नहीं थी. अगर आपत्ति थी तो वह हितेश साहब के घर जा कर रियाज करने में.

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मां बहुत खुश थीं, मानो ‘जैकपौट’ निकल आया हो. वे तो बचपन से ही अपने लिए एक सफल गीतकार बनने का सपना देखती आई थीं. उन्हें ऐसा एहसास हुआ मानो उन के पार्श्व गायिका बनने के स्वप्न की यह पहली सीढ़ी थी. समय रफ्तार से बढ़ता गया. न चाहते हुए भी महीने में एक बार पंचम को मंच पर हितेश साहब का साथ देना ही पड़ता. उस के लिए रियाज और अभ्यास भी आवश्यक था. मां कल्याणी बहुत खुश थीं. उन्हें एहसास होता, मानो पंचम के गले से उन्हीं के स्वर निकल रहे हों. पापा के दबाव से परीक्षा के दिनों में पंचम को मंच और रियाज से 2 महीने का अवकाश मिल जाता. किंतु समय बहुत क्रूर है, उस की सूई कहां रुकती है. फिर वह इतवार आ जाता जब उसे हितेश साहब के यहां रियाज के लिए जाना पड़ता.

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