घर में भैयाभाभी का मेरे प्रति कोई सहयोगात्मक रवैया नहीं था. वे मेरे साथ बेगानों की तरह व्यवहार करते. आखिरकार, जब मेरी पढ़ाई रुक गई तो मैं ने एक अस्पताल में वार्ड बौय की नौकरी कर ली. तनख्वाह कोई खास न थी. हां, लोगों की टिप्स ठीकठाक मिल जाया करती थी. अभी एक महीना भी न गुजरा था कि एक दिन मैं ने भाभी को भैया से यह कहते सुना, ‘‘कब तक मुफ्त की रोटियां तोड़ते रहेंगे देवरजी?’’
‘‘1 महीना होने दो,’’ भैया बोले.
‘‘अभी से कान भरोगे तभी कुछ सोचेगा,’’ भाभी बोलीं.
भैया ने घुमाफिरा कर भाभी की बात मेरे सामने दोहरा दी. मुझे नागवार लगा. भाभी न सही, कम से कम भैया को तो सोचसमझ कर बात करनी चाहिए. एक तो मेरी पढ़ाई बीच में छूट गई, दूसरे, नौकरी लगे जुम्माजुम्मा चार दिन हुए और घरखर्च का ताना देने लगे. अस्पताल से लौटने में कभीकभी मुझे देर हो जाया करती थी. ऐसे ही एक रात मैं देर से घर लौटा तो पाया कि घर के फाटक पर ताला लटक रहा था. मैं ने पड़ोसी से चाबी ले कर फाटक खोला. कमरे की चाभी भैया एक खास जगह रख कर जाते थे जिस का सिर्फ मुझे पता था. वहां से चाभी ले कर मैं ने कमरा खोला. बहुत भूख लगी थी. रसोई में जा कर बरतन उलटापुलटा कर के देखे, खाने के लिए कुछ न मिला. खिन्न मन से भैया को फोन लगाया तो पता चला कि वे ससुराल में हैं. अगले दिन दशहरा था, सो मना कर ही लौटेंगे. मैं ने स्वयं रोटी बनानी चाही. जैसे ही गैस जलाई, कुछ सैकंड जली, फिर बंद हो गई.
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