पिताजी गुजरे तब मेरी उम्र 12 साल की थी. गीता दीदी 18 और भैया 22 साल के थे. अचानक हुए इस हादसे को हम सब बरदाश्त करने की स्थिति में नहीं थे. मुझे समझ थोड़ी कम थी, फिर भी इतना भी नासमझ नहीं था कि पिताजी के जाने का अर्थ न समझ सकूं. मां का रोरो कर बुरा हाल था. कच्ची गृहस्थी थी. ऐसे में उन्हें चारों तरफ सिवा अंधकार के कुछ नहीं दिख रहा था. सारे रिश्तेदार जमा थे. वे मां को समझाने का भरसक प्रयास कर रहे थे. मगर वे कुछ समझने को तैयार ही नहीं थीं. बस, एक ही रट लगाए थीं कि अब वे शेष जीवन कैसे गुजारेंगी. कैसे गीता की शादी होगी? हम सब को वे कैसे संभालेंगी? उन का रुदन सुन कर सभी की आंखें नम थीं. थोड़ाबहुत वे मामाजी को समझने को तैयार थीं.
मामाजी भरे मन से बोले, ‘दीदी, दिल छोटा मत करो. मैं तुम्हारे लिए सुरक्षाकवच बन कर तब तक खड़ा रहूंगा जब तक तुम्हारा परिवार संभल नहीं जाता.’ उन्होंने अपना वादा निभाया. रोजाना शाम को बैंक की ड्यूटी से खाली होते तो सीधे घर आ कर हमारा हालचाल जरूर लेते. उन के आने से हम सब को बल मिलता. उन्हीं के प्रयास से भैया को पापा की जगह पोस्ट औफिस में नौकरी मिली. फंड से मिले रुपयों से गीता दीदी की शादी हुई. पापा का बनाया मकान था, सो रहने की समस्या नहीं थी. आहिस्ताआहिस्ता हमारा घर संभलने लगा. गीता दीदी की शादी के बाद बचे रुपयों को मां ने अपने पास बुरे वक्त के लिए रख लिया. इस बीच भैया की शादी के लिए लड़की वालों के रिश्ते आने लगे. मां को एक जगह रिश्ता अच्छा लगा, सो मामा से रायमशविरा कर के भैया की शादी कर दी. अब वे निश्ंचत थीं. लेदे कर एक मैं ही बचा था. उन्हें विश्वास था कि मैं कहीं न कहीं पढ़लिख कर सैटल हो ही जाऊंगा. मगर नियति को और ही कुछ मंजूर था. मां को अचानक ब्रेनहेमरेज हुआ और वे हम सब को रोताबिलखता छोड़ चली गईं. भैया को ज्यादा फर्क नहीं पड़ा पर मैं अकेला हो गया. मैं उस रोज फूटफूट कर रोया क्योंकि एक मां ही थीं जो मेरी राजदां थीं. मैं जब भी कभी उलझन में होता, वे बड़ी आसानी से मेरी समस्या का समाधान कर देतीं. एक तरह से वे मेरी संबल थीं.
मां की तेरहवीं तक गीता दीदी मेरे पास रहीं. जब तक थीं मेरी तन्हाई पर अंकुश लगा रहा. पर जैसे ही वे चली गईं, घर काटने को दौड़ने लगा. सब से बुरी बात यह हुई कि जिन भैयाभाभी पर मेरी जिम्मेदारी थी वे ही मुझ से विमुख होने लगे. एक दिन मैं ने मां की पासबुक देखी तो पाया कि उस में फूटी कौड़ी भी न थी. यह जान कर मैं स्तब्ध रह गया. भैया से पूछा तो बड़े तल्ख शब्दों में बोले, ‘‘मैं क्या जानूं?’’ ‘‘पूरे 2 लाख थे, भैया. मां ने मेरी पढ़ाईलिखाई के लिए रखे थे,’’ मैं लगभग रोंआसा हो गया. ‘‘जब तू जानता था कि पूरे 2 लाख रुपए थे तो तुझे यह भी पता होगा कि रुपए कहां गए. मुझे तो पता भी नहीं था कि मां ने इतने रुपए बैंक में रखे हैं,’’ भैया बड़ी सफाई से अपना दामन बचा ले गए.
‘‘भैया, याद कीजिए, मां ने आप को मेरी अनुपस्थिति में कुछ दिया हो?’’
‘‘तेरा दिमाग तो नहीं खराब हो गया. मां से दिनरात तो तू चिपका रहता था. तुम दोनों क्या खिचड़ी पकाते थे, मैं ने कभी जानने की भी कोशिश नहीं की. फिर वे कहां से मुझे रुपए देंगी? मुझे रुपयों की जरूरत ही क्या है जो उन से मांगूंगा और वे मुझ को देंगी.’’
‘‘खिचड़ी? कैसी बात कर रहे हैं. न मैं ने, न मां ने आज तक आप से कुछ छिपाया. पापा का जो भी फंड मिला उस से गीता दीदी की शादी हुई और शेष रुपए जस के तस बैंक में जमा थे तो इसलिए कि अगर मुझे बेहतर पढ़ाई करनी होगी तो आप से मांगने की जरूरत न पड़े.’’
‘‘इतना घमंड?’’
‘‘मां आप पर आर्थिक बोझ नहीं डालना चाहती थीं. अब आप इसे जिस रूप में लें,’’ कह कर मैं ने इस विवाद को विराम दिया. क्योंकि जब मैं ने देखा ही नहीं तो क्या कर सकता हूं. जबकि सचाई यही थी कि रुपए भैया ही ने लिए थे. मां की आदत थी. वे चैकों पर अग्रिम हस्ताक्षर बना कर रखती थीं ताकि पैंशन के रुपए लेने के लिए मुझे मां का इंतजार न करना पड़े. कभीकभी मां दीदी के पास चली जाती थीं, तो वहीं से फोन कर देतीं कि मैं ने चैक पर हस्ताक्षर कर दिए हैं, तू पैंशन निकाल लेना. मां के इस विश्वास का भैया ने नाजायज फायदा उठाया. मां के मरने की खबर रिश्तेदारों को देने जब मैं घर से बाहर निकला, उसी समय भैयाभाभी को मौका मिला मां का बक्सा खोल कर चैक और उन के रखे कुछ गहनों को चुराने का. मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि एक तरफ मां की लाश जमीन पर पड़ी हो, दूसरी तरफ भैया ऐसे कुत्सित प्रयास में लिप्त रहेंगे. ये सब सोच कर मेरा मन भीग गया. उस रोज मांपिताजी की खूब याद आई. अगर आज वे जिंदा होते तो शायद यह सब न देखना पड़ता? इन सब वजहों से मैं ज्यादा पढ़लिख भी नहीं पाया.