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लेखिका- काव्या कटारे

मेरे बूढ़े हाथों में अब इतनी ताकत नहीं कि हर बार टूट कर खुद को फिर से समझ सकूं. वह भले ही अपने आंसू छिपा ले पर उस का पिता हूं मैं, उस की नसनस से वाकिफ हूं. इस से तो पहले ही अच्छा था मेरा बेटा, कम से कम अपने पिता से गले लग कर रो तो लिया करता था.

अब बड़ा हो गया है न वह. मैं एक पल के लिए सोच में डूब गया, यह कैसी परिस्थिति है जहां एक पिता और पुत्र अपनेअपने आंसू रोके हुए एकदूसरे के सामने खड़े हैं पर एकदूसरे को गले लगा कर रो नहीं सकते. मैं यह सब सोच ही रहा था कि तभी अनिल ने कहा, “पापा, आप यहां? कुछ चाहिए था आप को ?” मैं एकदम चौक गया, “हूं, हममम्… खाना बन गया है, आ कर खा लो.” मैं ने लड़खड़ाती जबान से कहा और वहां से चला आया. अगर थोड़ी देर और रुकता तो रो पड़ता.

आखिर कौन सा पिता अपने बेटे को अवसाद के दलदल में फंसा हुआ देख सकता है. मैं तो केवल उस तक रस्सी पहुंचा कर उसे इस दलदल से बाहर निकालने का प्रयत्न कर सकता हूं, पर बाहर निकलना उसे है. उसे उस रस्सी को पकड़ना होगा. पर शायद अब वह खुद से हार चुका है. वह उस रस्सी को पकड़ना ही नहीं चाहता. यह सोचतेसोचते मैं कब नीचे आ गया, पता ही न लगा.

मेरे कदमों की आवाज से सुमन रसोई से बाहर आ गईं. उन की उम्मीदभरी निगाहें मुझे और ज्यादा परेशान कर रही थीं. इसलिए, मैं चुपचाप अपनी झुकी हुई निगाहें ले कर खाने की मेज पर बैठ गया. एक मां अपना उदास चेहरा ले वापस रसोई में सब के पेट भरने का इंतजाम करने लगी. पर अभी भी उन की उम्मीद उन के साथ थी. वे इस उम्मीद में थीं कि कम से कम आज तो उन का बेटा अपने मनपसंद समोसों को मेज़ पर सजा देख पेट भर कर खाना खा लेगा.

पर जिस अनिल को मैं ऊपर देख कर आया था उस का खाना खाने का कोई इरादा नहीं लग रहा था. मेरे सामने एक मां थी जो अपने बेटे के लिए मेज़ पर समोसों को सजा रही थी पर उन थालियों में केवल समोसे नहीं थे, थे उस के जज्बात, उस के बूढ़े हाथों की मेहनत, उस का प्यार और शायद उस की आखिरी उम्मीद. पर मैं तो यह भी यकीन के साथ नहीं कह सकता था कि आज उस का बेटा खाना खाने आएगा भी या नहीं.

मेरी सारी उम्मीदें तो पहले ही टूट चुकी थीं पर मैं नहीं चाहता था कि एक मां की उम्मीदें टूटें क्योंकि मैं जानता हूं कि कितना दुख होता है उम्मीद टूटने पर. पर इन सब की जड़ एक शब्द है मेरे बेटे का अवसाद में जाना, मेरी पत्नी की आंखों में दुख का समाना, मेरी सारी उम्मीदों पर पानी फिर जाना आदि सब एक शब्द की वजह से हैं- ‘नौकरी’.

मेरा बेटा करीब 32 साल का होने को आया है पर उस की आज तक सरकारी नौकरी नहीं लगी. पर मेरे बेटे को दुख न होता और न ही मुझे होता, अगर वह पढ़ाई न करता, अच्छे से तैयारी न करता. उस ने तो जीजान लगा दी थी. उस का कमरा ही पुस्तकालय बन चुका था और केवल नाम का ही नहीं, उस में हर एक किताब मिल जाती थी जो भी चाहिए. वह रात को 2-2, 3-3 बजे तक न सोता था. बस, पढ़ता रहता था. उस की लगन व मेहनत आज उस के किसी काम नहीं आ रही है.

यह सब उस दिन शुरू हुआ था जब उस का पीएससी का परिणाम आने वाला था. उस दिन हम सब अपने हंसतेखेलते अनिल के साथ इसी मेज पर बैठ कर उस की परीक्षा के परिणाम के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे. पूरे घर में शांति थी. अनिल ने हम से बड़े आत्मविश्वास से कहा था, ‘देखना मम्मी, देखना पापा, इस बार तो मेरा चयन हो कर ही रहेगा.’ उस समय उस की वाणी में जो जोश व उत्साह था उस ने हमें भी यकीन दिला दिया कि हां, लगातार 3 बार असफलता का मुंह देखने के बाद इस बार मेरा बेटा जरूर सफल होगा. हम ने बहुत उम्मीदें जोड़ ली थीं उस परिणाम से. परंतु जैसे ही उस के परिणाम सामने आए, मेरा बेटा बहुत उदास हो गया.

उस दिन पहली बार उस ने अवसाद के दलदल में अपना पहला कदम रखा था. वह उस रात कुछ भी न बोला. उस दिन मुझे भी बहुत बड़ा झटका लगा था. उस दिन घर में 3 लोग थे. पर मेरा घर किसी खंडर की भांति लग रहा था. सब निराश थे. पर हम में से कोई भी इस बात का जिम्मेदार अनिल को नहीं मान रहा था. पर उस दिन जातेजाते उस ने मुझ से एक बात बोली थी, ‘मुझे माफ कर दो, पापा. मैं आप के लिए कुछ भी न कर सका.’ उस के बाद हम ने अपने पहले वाले अनिल को खो दिया.

उसे लगता है कि उस ने हमारी उम्मीद तोड़ी है, वह हमारे लिए कुछ नहीं कर सका. पर मैं उसे कैसे बताऊं कि… एक बार फिर जब मैं ने अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए शब्दों को तलाशा तो मैं ने अपना शब्दकोश खाली पाया. मैं अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर सकता. इतना कहूंगा कि मेरा दर्द वही माली समझ सकता है जिस ने बड़े प्यार से अपने बाग को फूलों से सजाया पर उस ने अपनी आंखों से अपने फूलों को मुरझाते हुए देखा हो. पर मुझे अपनेआप पर पूरा भरोसा है कि मैं ने अपने बेटे को इतना काबिल बनाया है कि उसे जीवनयापन करने के लिए दूसरों का सहारा न लेना पड़े. मैं ये सब सोच ही रहा था कि तभी अनिल नीचे आ गया.

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