सुशील चंद्र साहित्य प्रेमी भी हैं. कवि और कहानीकार के रूप में उन की ख्याति देशभर में है. उन्होंने पहली बार तब कलम उठाई थी, जब उन्होंने अपनी पत्नी को खो दिया था. उन का कवि उन के दर्द, उन की पीड़ा, उन के अवसाद से जन्मा था. परंतु फिर भी उन की रचनाएं कभी भी हताशा का नहीं, अपितु उत्साह व ऊर्जा का संचार करती रही हैं. दर्द की जमीन पर उगी उन की कविता और कहानी के पेड़, औषधि के पेड़ की फूलपत्तियों सा लहलहाते हैं.
पत्नी के निधन पर वे शायद उतना नहीं टूटे थे, जितना उन की बेटीदामाद की सड़क दुर्घटना में मौत ने उन्हें तोड़ दिया था. और इस के बाद तो उन की रचनाओं में करुणा का विस्फोट ही होने लगा था. उन के दग्ध हृदय को राहत तब मिल पाई, जब उन्हें लगा कि बहू के रूप में उन्होंने फिर अपनी खोई हुई बेटी को पा लिया है.
अब ट्रेन में अपडाउन के दौरान उन के हृदय में एक अनजानी स्त्री के सौंदर्य को ले कर जो हलचल मची है, उस ने उन के मनमस्तिष्क में आंधीतूफान जैसे हालात पैदा कर दिए हैं. वह महिला उन के गंतव्य स्टेशन से एक स्टेशन पहले उतर जाती है. उस के उतर जाने के बाद भी उन का सफर अगले पड़ाव तक जारी रहता है. और वह महिला उन के ध्यान में फिर भी सफर करती रहती है. वापस लौटते समय भी वे आतुर और उत्सुक हो कर उस स्टेशन के आते ही जहां से वह महिला ट्रेन पकड़ती है, दरवाजे की तरफ देखने लगते हैं. वह आती है और जैसे महकती हुई खुशबू से पूरा डब्बा ही महक उठता है. फिर वे उस के रूपसौंदर्य से ऐसे बंध जाते हैं कि बंधे ही रह जाते हैं.
एक छोटे स्टेशन पर ट्रेन रुकी. सुशील चंद्र के सामने बैठा एक यात्री उतर गया. जैसे ही जगह खाली हुई, वह आकर्षक महिला अपनी सहयात्री महिलाओं को छोड़ कर सुशील चंद्र के ठीक सामने आ कर बैठ गई. बैठने से पहले उस ने उन्हें आदरपूर्वक कहा, ‘सर नमस्कार.’
ऐसा लगा, जैसे वह उन्हें वर्षों से जानती हो. सुशील चंद्र ने उस की तरफ किंचित प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा तो वह बोली, ‘सर, आप मुझे नहीं जानते, पर मैं आप को जानती हूं.’उन्हें घोर आश्चर्य हुआ. वे बोले, ‘आप मुझे जानती हैं. पर, आप मुझे कैसे जानती हैं?’
‘सर, आप को कौन नहीं जानता. पूरा शहर जानता है कि आप कितने बड़े कवि हैं. कितने बड़े साहित्यकार हैं. धन्य भाग्य हमारे, जो नौकरी के लिए होने वाले इस अपडाउन की वजह से हमें आप से परिचय का अवसर मिला.’
ट्रेन की गति धीमी हो गई थी. उस महिला का स्टेशन आ गया था. वह उठी और जातेजाते बोली, ‘सर, मैं जो कहना चाहती थी, वह असली बात तो कह ही नहीं पाई. लौटते समय जरूर मिलती हूं आप से, तब फिर बात करूंगी.’
वह आदरसहित अभिवादन में सिर झुका कर चली गई. उन्हें लगा कि उन के दिलोदिमाग से कई क्विंटल का बोझ उतर गया है. उन्हें लगा कि वह महिला भी कवयित्री या लेखिका है. और शायद यह कि वह उन का मार्गदर्शन और सपोर्ट पाना चाहती है. तो क्या वह जिसे उस की दैहिक सुंदरता समझ रहे थे, वह दैहिक सुंदरता नहीं, अपितु उस अनजान महिला की प्रतिभा के पंख थे. और यह कि शायद उन की पारखी नजर ने प्रतिभा के इन पंखों को पहचान लिया था. इसीलिए वह उन की नजर के आकर्षण का केंद्र बन गई थी. तरहतरह के अनुमान उन के मन में उमड़तेघुमड़ते रहे.
लौटते समय जब वह अपने स्टेशन से ट्रेन में चढ़ी तो सीधे उन के पास आई. उस ने सामने बैठे मुसाफिर से थोड़ा खिसकने का अनुरोध करते हुए उन के ठीक सामने ही बैठ गई. बात की शुरूआत उन्होंने ही की,‘तो आप को भी कविता और साहित्य में रुचि है?’‘जी हां,’ उस ने कहा.
‘आप कविता लिखती हैं या कहानियां लिखती हैं? या फिर…’‘जी नहीं, मैं ना तो कविता लिखती हूं, ना कहानियां लिखती हूं. हां, मेरे पिताजी लिखते हैं.’यह सुन कर सुशील चंद्र के सारे अनुमान ध्वस्त हो गए थे और वह महिला उन के लिए फिर से एक रहस्य बन गर्ई थी. वह महिला आगे बोली, ‘पिताजी पहले कहानी और लेख भी लिखते थे, अब वे सिर्फ कविताएं लिखते हैं. हर रोज लिखते हैं. और इन दिनों तो मैं ही उन की श्रोता हूं, और मैं ही उन की पाठक हूं. हर रोज उन की कविताओं का आनंद लेती हूं.’
सुशील चंद्र थोड़ा अचकचाए. वे थोड़ा विचार में भी पड़ गए. हर दिन उन की कविताओं का आनंद लेती है.’मतलब…?’ उन्होंने पूछा, ‘मेरा मतलब है कि क्या आप के पिताजी आप के साथ ही रहते हैं?”‘जी नहीं,’ उस ने सादगी, मगर दृढ़ता के साथ कहा, ‘पिताजी मेरे साथ नहीं, मैं उन के साथ रहती हूं.’
यह सुन सहसा उन्हें धक्का सा लगा. सुशील चंद्र ने आश्चर्य से उस महिला की तरफ देखा. उस के ललाट पर सुहाग की बिंदी को देखा. 34-35 साल की उम्र और पिताजी के साथ रहती है. क्या मजबूरी हो सकती है? अगर विधवा होती तो माथे पर सुहाग की यह बिंदी न होती… तो क्या परित्यक्ता है?
उत्सुक्तावश उन्होंने पूछ ही लिया, ‘और आप का परिवार?महिला के चेहरे पर मुसकराहट आ गई. इस मुसकराहट में रहस्य की कर्ई परतें लिपटी हुई थीं. फिर उस ने खुद ही रहस्य की परतों को हटाते हुए कहा, ‘पिताजी हमारे परिवार के मुखिया हैं… ससुर हैं मेरे.’ओह…’ इस अप्रत्याशित जवाब से सुशील चंद्र चकित रह गए. उन्हें लगा कि उन की सोच कितनी बौनी है और उस महिला के विचार कितने ऊंचे हैं. संस्कार कितने पवित्र हैं…