लेखक-ब्रजकिशोर पटेल
सुशील चंद्र को ‘अपडाउन’ शुरू किए हुए आज यह चौथा ही दिन था. 58 वर्ष की उम्र में जीवन में पहली बार वे ट्रेन से अपडाउन करते हुए अपनी सरकारी ड्यूटी निभा रहे थे.
नौकरी के आरंभ से अभी तक अपने ही शहर में पदस्थ रहने वाले सुशील चंद्र का पहली बार शहर से काफी दूर तबादला हुआ था. इसलिए अपडाउन करते हुए कुछ अजीब सा लगना स्वाभाविक था. पर सब से ज्यादा असहज वे उस महिला के कारण हो रहे थे, जो उसी ट्रेन से हर दिन आतीजाती है. वह इतनी सुंदर है कि उस का सौंदर्य बरबस ही उन का ध्यान अपनी ओर खींच लेता है, और वे असहज हो जाते हैं.
आज भी सुशील चंद्र खिड़की वाली सीट पर बैठे ही थे तभी उस सुंदर महिला ने भी उसी डब्बे में प्रवेश किया. हर दिन की तरह वह आज भी 3 अन्य अध्यापिकाओं के साथ ही आई थी. 25 से 45 साल की उम्र की इन चारों महिला अध्यापिकाओं में लगभग 35 साल की यह एक महिला ही अपने अप्रतिम सौंदर्य के कारण सुशील चंद्र के आर्कषण का केंद्र थी.
बड़ा अजीब सा लगता सुशील चंद्र को. क्या इतनी सुंदर महिला उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थी? गोरा रंग, गोल चेहरा, तीखी नाक, बड़ीबड़ी हिरणी जैसी आंखें, सुराहीदार गरदन, सलीके से पहनी हुई साड़ी, गुंधी हुई वेणी के साथ उन्नत ललाट पर सुहाग की बड़ी बिंदी उस के सौंदर्य में सुगंध भरते हुए उसे और भी आकर्षक बना देती. वह किसी अनाम चुंबक की तरह उन की दृष्टि को अपनी तरफ खींच लेती.
आज भी सुशील चंद्र ने उसे देखा, तो वे उसे देखते ही रह गए. अचानक उस ने भी उन की ओर देखा. सुशील चंद्र को लगा कि उन की चोरी पकड़ी गई है. झेंप कर उन्होंने अपनी आंखें झुका लीं. कुछ देर बाद फिर उधर देखा तो पाया कि वह अब भी उन्हीं की तरफ देख रही है. कहीं ऐसा तो नहीं, उसे उन का इस तरह घूरघूर कर देखना नागवार लगा हो. और अब वह उन के इस तरह किसी अनजान महिला को घूरघूर कर देखने के पीछे छिपी मंशा की पड़ताल करना चाह रही हो. वे आत्मग्लानि और संकोच से भर गए. अपनेआप को धिक्कारा. उन्होंने कहा कि 58 साल की उम्र में किसी अनजानी महिला की सुंदरता के आकर्षण में बंधना उन के लिए उचित है? कहीं वह 60 का होने से पहले ही सठिया तो नहीं गए हैं? अगर आज उन की बेटी जीवित होती तो वह भी लगभग इतनी ही उम्र की होती. इतनी ही सुंदर. तो क्या अपनी बेटी की उम्र की उस महिला की तरफ उन का आकर्षित होना उन का चारित्रिक पतन है…? नहींं, इसे चारित्रिक पतन नहीं कहा जा सकता. इसलिए नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उस महिला के प्रति वे एक अनाम, किंतु पवित्र आर्कषण महसूस कर रहे थे.
सुशील चंद्र का विवाह 25 वर्ष की उम्र में हुआ था. 32 वर्ष का होतेहोते उन की 2 संतानें हुईं. पहली बेटी, दूसरा बेटा. जब बेटी 6 वर्ष की थी और बेटा 4 वर्ष का था, तभी आकस्मिक बीमारी के कारण उन्होंने अपनी जीवनसंगिनी को खो दिया था. अब अपने नन्हेमुन्ने बच्चों के लिए वे ही उन की मां थे.बच्चों का लालनपालन करतेकरते सुशील चंद्र को पता ही ना चला कि उन का पितृत्व कब और कहां खो गया. अब वे केवल ‘‘मां’’ थे, अपने बच्चों की मां. मां जब होती है तो अलग से पिता की जरूरत भी नहीं रहती. मां के भीतर पिता की भूमिका भी खुद ब खुद समाहित ही रहती है.
मां बन कर वे ना केवल अपना पितृत्व अपितु अपना पुरुषत्व भी भूल चुके थे. इसलिए तो ना उन्होंने कभी दूसरे विवाह के बारे में सोचा और न ही कभी किसी परस्त्री की तरफ कामातुर दृष्टि से देखा. कामातुर तो वे अभी भी नहीं हैं, परंतु वे खुद नहीं समझ पा रहे हैं कि वह कौन सा आर्कषण है, जो उन्हें एक अनजान महिला के साथ बांध रहा है.जिन दिनों बच्चे छोटे थे, सुशील चंद्र सहायक शिक्षक के पद पर अपने ही शहर की एक शासकीय शाला में पदस्थ थे. उन्होंने हमेशा अपनी मां की भूमिका और शिक्षक के दायित्व के बीच सुंदर समन्वय रखा. वे शहर की ही शाला में पदस्थ और इतने लोकप्रिय शिक्षक थे कि संपूर्ण शासकीय सेवा में अपने शहर में ही पदस्थ रहे.अलबत्ता, उच्च श्रेणी शिक्षक के पद पर पदोन्नति के कारण उन्हें शाला बदलना पड़ा था. किंतु तब शहर के इस महल्ले से बदल कर वे शहर की ही उस महल्ले की शाला में पदस्थ हो गए थे. अब उन की फिर पदोन्नति हुई है और अब वे हायर सेकेंडरी स्कूल के प्राचार्य हो गए हैं.
हायर सेकेंडरी स्कूल के प्राचार्य का पद ना शहर की किसी शाला में रिक्त था, और न ही आसपास के गांव की किसी शाला में ही रिक्त था. इसलिए उन की नई पदस्थापना दूरस्थ जगह पर हुई. जहां उन की पदस्थापना हुई, वहां ड्यूटी के लिए ट्रेन से अपडाउन ही एकमात्र उपाय था.सुशील चंद्र का बेटा आईआईटी इंजीनियर है और बहुत ऊंचे पैकेज पर बड़ी कंपनी में पदस्थ हो गया है. पिछले साल उस की शादी उस की अपनी सहकर्मी इंजीनियर के साथ हो गई है.
सुशील चंद्र को शिक्षित ही नहीं, अपितु उन्हें संस्कारवान पुत्रवधू मिली है. बहूबेटे दोनों चाहते हैं कि अब वे नौकरी से त्यागपत्र दे कर उन के पास ही हैदराबाद में रहें. परंतु सुशील चंद्र सेवानिवृत्ति तिथि के पूर्व ही सेवा से त्यागपत्र देने का मन नहीं बना पाए. दरअसल, अध्यापन करना उन के लिए शासकीय नौकरी ही नहीं, पूजा है, इबादत है. वे एक आदर्श शिक्षक हैं. पारिवारिक त्रासदी के बावजूद वे कर्मयोगी की तरह अपनी कर्म साधना ‘अध्यापन’ के काम में लीन रहे हैं.