जीतेजी अधीरा अपने दोनों बेटों से कह कर गई थी कि मैं मरूं तो मेरा तथाकथित पति मेरा अंतिम संस्कार ना करे. करना तो दूर, मेरा चेहरा भी ना देखे, मुझे छू भी ना सके और बेटों ने इस का पूरा मान रखा था.
अतीत के वे पल चलचित्र की भांति मनोज की आंखों में तैर उठे...
कुछ वर्ष शांति से बीते. मनोज का बिजनैस खूब तरक्की कर रहा था. दोनों बेटे भी पढ़लिख कर जौब करने लगे. सजल के लिए तो रिश्ते भी आने लगे थे. लंबे, आकर्षक दोनों बेटे तो अधीरा की आंखों के तारे थे. एक बडा़ फ्लैट भी खरीद लिया था दिल्ली में. दोनों बेटे वहीं रहते थे साथसाथ.
अकसर मनोज और अधीरा भी 1-2 दिन बच्चों के साथ रह आते थे.
सबकुछ ठीक चल रहा था. बच्चों की पढ़ाई और नौकरी के कारण कुछ वर्षों से अधीरा अकेली पड़ गई थी.मनोज अपने बिजनैस में बिजी रहता था और उस के शक्की स्वभाव के कारण अधीरा कहीं आतीजाती नहीं थी तो घर बैठेबैठे ही साहित्य में उसे रुचि हो आई थी.
काफी समय मिला तो कविताकहानी और लेखन में व्यस्त हो गई. मनोज भी देख कर खुश था कि घर बैठे ही वह अपना मन बहलाने लगी है.
'अरे सजल बेटा, प्रगति मैदान में बुक फेयर लगा है. एक बार मुझे ले चलो.'
'हां...हां...क्यों नहीं,' दोनों बेटे अपनी मां की कोई बात नहीं टालते थे. कहने के साथ ही उस की सारी फरमाइशें पूरी करते थे. चाहे औनलाइन किताबें मंगानी हों या अधीरा के 45वें जन्मदिन पर उस का पसंदीदा 54 इंची प्लाज्मा टीवी घर में ला कर उसे आश्चर्यचकित कर देने का प्लान हो.
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