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लेखिका- शकुंतला शर्मा

तभी मां उस के पास बैठ बोली थीं. ‘कहो, मां.’ ‘ऐसे कब तब चलेगा? न किसी से कुछ कहतीसुनती हो, न हंसतीबोलती हो. तुम्हारे पिताजी जहां भी विवाह की बात चलाते हैं, तुम कोई न कोई बहाना बना कर टाल जाती हो. लगता है, तुम्हारे मन को तो सुमित के अलावा कोई भाता ही नहीं.’ ‘उस का नाम मत लो, मां. उस ने मुझे धोखा दिया है,’ तृप्ति क्रोधित स्वर में बोली थी. ‘नहीं बेटी, धोखा तो तब होता जब वह बिना कुछ बताए तुम से विवाह कर लेता. सच पूछो तो मैं उस की साफगोई से बहुत प्रभावित हूं. उस में संबंधों की नाजुक डोर को संभालने की क्षमता है. जरा सोचो, जो व्यक्ति अपने नन्हे से बच्चे से इस तरह जुड़ा है,

भविष्य में तुम्हें किस तरह रखेगा. मेरा मतलब है यदि तुम उस से विवाह करने का निर्णय लो तो...’ तृप्ति की मां ने बात आगे बढ़ाई थी. आखिरकार, तृप्ति को कुछ समझ आया था, सो उस ने मां से हां कह दी थी. तृप्ति ने तो केवल स्वीकृति दी थी, बाकी बातचीत तो उस के पिता और बड़े भाई ने की थी. वे तो उझानी जा कर सुमित के मातापिता और सिद्धार्थ से भी मिल आए थे. इस तरह वह सुमित की पत्नी बन कर उस के घर में आ गई थी. अब तो स्वयं उस का 4 वर्ष का बेटा मयूर था. सिद्धार्थ की बात इन 7 वर्षों में न उस ने की, न सुमित ने उठाई, फिर अचानक उस का सिद्धार्थ को ले कर इस तरह बेचैन हो उठना? तृप्ति की समझ में कुछ नहीं आया था. इतने वर्षों से तो वह दादादादी के साथ आराम से रह रहा था, फिर अब अचानक क्या हो गया? तभी द्वार पर आहट हुई थी और तृप्ति ने मुड़ कर देखा था.

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