लेखिका- शकुंतला शर्मा
सुमित और तृप्ति का वैवाहिक जीवन सुचारु रूप से चल रहा था. फिर भी एक अनकही दूरी दोनों के बीच बनी हुई थी. इस का कारण था सिद्धार्थ. आखिर, कौन था यह सिद्धार्थ? ‘‘क्या बात है, सुमित. बड़ी गंभीर मुद्रा में बैठे हो, कुछ चाहिए क्या?’’ तृप्ति ने सुमित को कहीं शून्य में ताकते देख प्रश्न किया, मगर सुमित स्वयं में ही डूबा बैठा रहा. ‘‘सुमित...? कहां खो गए तुम?’’ तृप्ति ने अपना स्वर ऊंचा कर फिर कहा तो मानो सुमित की तंद्रा टूटी. ‘‘कुछ कहा क्या तुम ने?’’ सुमित ने प्रश्न किया. ‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक है, सुमित? आजकल देखती हूं तुम बात करतेकरते बीच में ही कहीं खो जाते हो?’’ ‘‘मैं क्या छोटा बच्चा हूं जो कहीं खो जाऊंगा,’’ सुमित बोला.
‘‘बड़े भी खो जाते हैं, सुमित, और मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती,’’ तृप्ति गंभीर स्वर में बोली, ‘‘मैं कई दिनों से तुम्हारी आंखों में अजीब सी तड़प देख रही हूं. मैं जब भी पूछती हूं, तुम टाल जाते हो. आज मैं तुम से जान कर ही रहूंगी.’’ ‘‘अगर मैं कहूं कि मैं भी तुम्हें खोना नहीं चाहता तो?’’ ‘‘विवाह के 7 वर्षों बाद भी यदि तुम्हें इतना विश्वास नहीं है तो हमारा दांपत्य अर्थहीन है, सुमित,’’ तृप्ति बोली. उस के स्वर की वेदना को सुमित ने साफ अनुभव किया था. ‘‘तो सुनो, तृप्ति, तुम्हें नहीं बताऊंगा तो और किसे बताऊंगा? जब से सिद्धार्थ से मिल कर लौटा हूं, मन बहुत उदास है.’’ ‘‘सिद्धार्थ यानी गौतम बुद्ध. वे कहां मिल गए तुम्हें?’’ तृप्ति हंसी. ‘‘यह उपहास का विषय नहीं है, तृप्ति,’’ सुमित के स्वर में तीव्र वेदना थी. ‘‘तुम्हें दुख पहुंचाने का मेरा विचार नहीं था, पर मैं सचमुच कुछ नहीं समझी,’’ कहते हुए तृप्ति ने नजरें नीची कर ली थीं.