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नंदिता की बीमारी के दौरान राजेंद्र के अनमोल योगदान ने माधवेश को उस का ऋणी बना दिया था, इसीलिए जब माधवेश ने उसे नंदिता से मिलवाया तो बहुत कम समय में ही दोनों के बीच गहरी आत्मीयता देख वह संदेह में पड़ गया. आखिर क्या संबंध था नंदिता का राजेंद्र से? बहुधा नंदिता सिरदर्द की शिकायत करती रहती थी. लेकिन एक दिन जब वह अचेत हो गई तो शीघ्र ही डाक्टर से परामर्श लेना पड़ा. आननफानन अनेक जांचें की गईं और डाक्टर ने बताया कि मेरी पत्नी के मस्तिष्क में गांठ है जिस का एकमात्र उपचार औपरेशन है.

‘‘डाक्टर साहब, कब तक करा लेना चाहिए औपरेशन,’’ मैं ने पूछा. ‘‘जल्दी से जल्दी. मैं अन्य जांचें भी लिख देता हूं. 3 यूनिट खून की व्यवस्था भी करनी पड़ेगी. सारी तैयारियों के बाद मु?ा से मिल लीजिएगा. औपरेशन की तारीख तय कर ली जाएगी.’’ डाक्टर का यह संक्षिप्त सा उत्तर मु?ो किसी बड़े अनिष्ट का आभास दे गया. जांच से पता चला कि नंदिता का रक्त समूह ‘एबी नैगेटिव’ है जो एक दुर्लभ रक्त समूह है. सगेसंबंधियों एवं इष्ट मित्रों से सिर्फ 2 यूनिट रक्त की व्यवस्था हो पाई. आखिरकार, अखबारों में यह सोच कर अपील छपवाई कि शायद कोई रक्तदाता मेरी सहायता के लिए आगे आए. करीब एक सप्ताह बाद 35-36 साल का राजेंद्र नाम का एक युवक मेरे पास आया. उस ने सहर्ष रक्तदान किया और जब जाने लगा तो मैं ने आग्रह किया, ‘‘राजेंद्रजी, अपने रक्तदान से आप ने न केवल मेरी पत्नी की ही प्राण रक्षा की बल्कि मु?ो भी पुनर्जीवन दिया है.

मैं आप का आजीवन ऋणी तो रहूंगा किंतु आग्रह करूंगा कि आप एक बार घर अवश्य आइए. अपनी पत्नी से भी आप की भेंट करवाता कि आप ही वे शख्स हैं.’’ कहता हुआ मैं भावुक हो उठा था. ‘‘माधवेशजी, पहली बात तो यह कि मु?ा से आप उम्र में बड़े हैं. मु?ो केवल राजेंद्र कहिए. दूसरी बात, आप के घर कभी अवश्य आऊंगा और आप की पत्नी से भी भेंट करूंगा. उन्हें मेरी शुभकामनाएं कहिएगा,’’ राजेंद्र ने विनम्रता से कहा और चला गया. मैं ने अभी नंदिता से रोग की जटिलता के बारे में कुछ नहीं बताया था. एक दिन जब मैं घर लौटा तो पाया कि नंदिता और राजेंद्र आपस में बातें कर रहे हैं.

नंदिता बहुत खुश नजर आ रही थी. मु?ो भी काफी खुशी हुई. राजेंद्र ने मु?ो देखा तो खड़़ा हो कर मेरा अभिवादन किया. कुछ देर ठहरा और फिर चला गया. अब अकसर ही राजेंद्र मेरे घर आने लगा. कभी मु?ा से भेंट होती. कभी बिना मिले ही चला जाता. अकसर उस का आनाजाना मेरी गैरमौजूदगी में ही होता था, यह मु?ो कुछ असहज सा लगा. औपचारिकता का परिचय इतनी शीघ्रता से इतनी घनिष्ठता में परिवर्तित हो जाएगा, मु?ो इस का रंचमात्र भी आभास न था.

कभीकभी मेरे मन में संदेह का फन खड़ा होता कि कहीं नंदिता और राजेंद्र पूर्व परिचित तो नहीं, लेकिन अगले ही क्षण मैं उस खड़े फन को कुचल देता. मेरा अंतर्मन कहने लगता, तुम व्यर्थ शक कर रहे हो. नंदिता 18 वर्षों से तुम्हारी ब्याहता है, उसे भटकना होता तो वह अपनी यौवनावस्था में ही भटक गई होती. अब जब उस की जीवन संध्या समीप ही है तब भला वह क्यों भटकेगी? फिर भला एक रोगिणी से राजेंद्र इतनी प्रगाढ़ता क्यों रखना चाहेगा.

 

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