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जब ये सारे तर्क मेरे मस्तिष्क में उभरते तो मु?ो लगता यह मेरी ही भूल है. राजेंद्र और नंदिता की प्रगाढ़ता एक स्वाभाविक मानवीय व्यवहार ही है. मैं उस संदेह को भुला देता था. आज औपरेशन था. एक अज्ञात भय, अज्ञात अनहोनी और आशंका के बीच मैं औपरेशन कक्ष के सामने चहलकदमी करता रहा. राजेंद्र भी साथ था. उस की मौजूदगी से मु?ो बल मिला. साढ़े 5 घंटे बाद जब नंदिता बाहर आई तो मैं ने लपक कर पूछा, ‘‘कैसी हो नंदिता?’’ मेरे स्वर में बेचैनी थी. ‘‘ठीक हूं,’’ दर्दभरे शब्दों में उत्तर मिला. मेरे पीछे खड़े राजेंद्र ने मुसकरा कर हाथ हिलाया.

नंदिता ने उसे भरपूर नजर देखा और फिर दर्द के कारण आंखें बंद कर लीं. तभी राजेंद्र मेरे कंधे पर हाथ रख कर बोला, ‘‘भाईसाहब, धैर्य रखिए, सब ठीक हो जाएगा.’’ उस के सांत्वना के इन शब्दों से मु?ा में जैसे साहस का पुनर्संचार हुआ. आज नंदिता को अस्पताल से छुट्टी मिलनी थी. मैं बहुत खुश था. उल्लास से भरा था कि अब नंदिता रोगमुक्त हो चुकी है. जाने से पहले मैं डाक्टर से मिलने गया तो डाक्टर ने कहा, ‘‘माधवेशजी, बायोप्सी जांच की रिपोर्ट आ गई है और बहुत ही अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि ‘ट्यूमर’ कैंसरयुक्त है. सो, इस औपरेशन से कुछ दिनों का फायदा तो होगा किंतु रोग से स्थायी मुक्ति संभव नहीं है.’’ यह सुन कर तो मैं ठगा सा रह गया.

सारी खुशी, सारा उल्लास पलक ?ापकते ही एक आघात और विषाद में बदल गया. साथ में राजेंद्र भी था. उस ने मु?ो संभाला. हम तीनों घर पहुंचे. मैं निष्प्राण सा एक कुरसी पर जा गिरा. राजेंद्र ने ही नंदिता को सहारा दिया. उसे बिस्तर पर लिटाया. पास ही मेज पर उस की दवाइयां रख दीं. नंदिता को सहारा दे कर उस के सिर के पीछे तकिया लगा दिया. मैं मूकदर्शक सब देखता रहा. मेरी आंखों के सामने एक अपरिचित व्यक्ति मेरी पत्नी को स्पर्श कर रहा था और मैं चुपचाप देख रहा था. मु?ो गुस्सा नहीं आया, घृणा नहीं हुई, न ही दिमाग में कोई ईर्ष्या उपजी. ऐसा क्यों हुआ. मु?ो प्रतीत हुआ कि यह मेरी अपनी दुर्बलता थी जिस से राजेंद्र नंदिता को स्पर्श कर सकने की सीमा तक बढ़ गया, किंतु नंदिता को तो इस स्पर्श से बचना चाहिए था. इस अंतरंगता से राजेंद्र को दूर रखना चाहिए था.

कम से कम नंदिता मु?ो बुला ही लेती जबकि मैं सामने ही बैठा था. कुल मिला कर यह बात मु?ो ठीक नहीं लगी. न जाने क्यों, यह छोटी सी बात एक संदेह के रूप में मु?ा में घर कर गई. खैर, संभव हो यह सबकुछ परिस्थितिजन्य हो, यह मान कर मैं ने इस बात को भूलने का प्रयास किया. उपचार के दूसरे चरण में नंदिता की रेडियोथेरैपी की जानी थी. मैं ने नंदिता को भुलवा दिया कि गांठ दोबारा न उभरे, इसलिए रेडियोथेरैपी की जरूरत है. इस दौरान राजेंद्र बहुधा उपलब्ध ही रहता. न जाने क्यों, धीरेधीरे उस पर मेरी निर्भरता बढ़ती गई और आशा घटती गई. मैं बातबात पर अब ?ाल्लाने लगता. एक हफ्ते में लगातार 5 दिन रेडियोथेरैपी की जाती थी.

ज्यों ही नंदिता को ले कर अस्पताल के लिए निकलता, मैं बेचैन होने लगता था. मैं जान गया था कि मृत्यु ही अब नंदिता को इस रोग से मुक्ति दिला सकती है. यही भय, यही निराशा मु?ो अस्पताल जाने से रोकती. शुरू के 3-4 दिन मैं नंदिता के साथ गया किंतु फिर न जाने क्यों, मैं ने यह दायित्व राजेंद्र को सौंप दिया. वह एक अद्भुत अपनत्वभरे भाव से नंदिता की सेवा में लगा रहता. मैं ने महसूस किया कि राजेंद्र नंदिता का ज्यादा से ज्यादा सामीप्य चाहने लगा था. उस की इस चाह के पीछे क्या कारण हो सकता था, यह तो मैं नहीं भांप पाया किंतु यह निश्चित था कि जिस तन्मयता, तत्परता और समर्पण की भावना से वह नंदिता की सेवा में लगा था, वह मात्र परिस्थितिजन्य नहीं हो सकता था.

फिर नंदिता ने भी कभी ऐसा संकेत नहीं दिया कि राजेंद्र का इस सीमा तक हस्तक्षेप उसे स्वीकार नहीं बल्कि मैं ने यह महसूस किया कि राजेंद्र की मौजूदगी से वह खुश रहती थी. गाहेबगाहे मैं इस बारे में गंभीरता से सोचता भी, लेकिन संतोषजनक उत्तर नहीं मिल सका. रेडियोथेरैपी पूरी हुई. नंदिता का स्वास्थ्य फिर से डगमगाने लगा. डाक्टर ने कीमोथेरैपी का परामर्श दिया. मेरी हिम्मत जवाब दे रही थी. मु?ा में साहस नहीं था कि मैं नंदिता को कीमोथेरैपी के लिए तैयार करूं. ऐसी परिस्थिति में मैं ने राजेंद्र से राय ली तो वह बोला, ‘‘क्या कीमोथेरैपी से फायदा होने की संभावना है?’’ ‘‘शायद,’’ कहते हुए मैं कमरे से बाहर आ गया. रूमाल से आंखें पोंछीं. मेरे पीछेपीछे राजेंद्र भी आया. ‘‘अब क्या होगा?’’ राजेंद्र बोला. उस का स्वर भर्राया हुआ था. आंखें नम थीं. चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.

मैं अपनी पीड़ा भूल गया. ‘‘तुम क्यों विचलित हो राजेंद्र? तुम ने ही तो नंदिता के जीवन में बहुमूल्य 8 महीने जोड़े वरना मैं न जाने कब का उसे खो चुका होता,’’ मैं ने उसे सम?ाने का प्रयास किया पर वह रुका नहीं. अपने भीगे नेत्रों को मु?ा से छिपाता हुआ तेजी से बाहर निकल गया. इस तरह से उस का भावविह्वल हो उठना, मेरे मन में फिर संदेह पैदा कर गया. उस के जाने के बाद घर में मरघट सी शांति छा गई थी. मैं ने कीमोथेरैपी का विचार त्याग दिया कि जब मृत्यु निश्चित है तो शरीर को पीड़ा पहुंचाने से क्या फायदा. उधर जब 4-5 दिन तक राजेंद्र नहीं आया तो मन में कई तरह के विचार उठने लगे. कभी सोचता, चलो, अच्छा हुआ, स्वयं ही चला गया.

फिर सोचता, राजेंद्र के रहने से कम से कम नंदिता खुश तो रहती थी. करीब 10 दिनों बाद अचानक ही राजेंद्र एक दिन आ गया. ‘‘कहां चले गए थे?’’ मैं ने आते ही पूछा. ‘‘नंदिता कैसी है?’’ उस ने मु?ा से ही प्रश्न पूछ डाला. ‘‘जाओ, स्वयं ही मिल लो,’’ मैं ने नंदिता के कमरे की ओर इशारा किया. राजेंद्र अंदर गया और मैं कमरे के बाहर छिप कर उन दोनों की बातें सुनने लगा. ‘‘अकेले नहीं रह सके न, क्यों?’’ नंदिता कह रही थी, जिसे सुन कर मैं हक्काबक्का रह गया था. ‘‘क्या चंदन से सुगंध को अलग किया जा सकता है कभी?’’ यह रहस्यमय प्रत्युत्तर राजेंद्र का था, ‘‘खैर, बताओ, तुम कैसी हो?’’ ‘‘जैसी देख रहे हो. मेरे पति और तुम मु?ा से जरूर कुछ छिपा रहे हो,’’ नंदिता ने पूछा. ‘‘कैसी बातें करती हो? तुम्हारे पति तुम्हें कितना चाहते हैं. इस का शायद तुम्हें आभास नहीं.

तुम्हारे उपचार के लिए क्या नहीं कर रहे हैं वे पर जब बीमारी ही ठीक न होने वाली हो तो कोई भी…’’ कहता हुआ राजेंद्र अचानक चुप हो गया. वह भयानक गलती कर चुका था. जो अब तक एक भेद था, उसे उस की ही भावुकता ने खोल दिया. ‘‘मैं तो जानती थी कि सिरदर्द है, उपचार के बाद ठीक हो जाएगा. कौन सी बीमारी है मु?ो?’’ मगर राजेंद्र चुप रहा तो नंदिता फिर बोली, ‘‘तुम बताते क्यों नहीं?’’ इस बार नंदिता की आवाज तेज थी. शायद वह घबरा गई थी. राजेंद्र फिर भी चुप रहा. ‘‘राजेंद्र, तुम चुप क्यों हो? कुछ बोलते क्यों नहीं? कुछ बताते क्यों नहीं?’’ इस बार नंदिता लगभग चीख पड़ी थी. मु?ो लगा कि मेरा वहां पहुंचना ही ठीक होगा. मैं ने कुछ भी न देखनेसुनने का अभिनय करते हुए प्रवेश किया. ‘‘क्या बात है, नंदिता?’’ मैं बोला. ‘‘राजेंद्र कहता है कि मु?ो ठीक न होने वाली बीमारी है.

आप ने अब तक बताया नहीं मु?ो,’’ नंदिता आवेश में थी पर जिस अपनत्व से उस ने राजेंद्र का नाम लिया था उस से लगा कि उस पर उस का बहुत ही गहरा अधिकार है. ‘‘राजेंद्र को पूरी बात मालूम नहीं है. तुम इस हालत में ज्यादा दिनों तक नहीं रहोगी,’’ मैं ने स्थिति को संभालने का प्रयास करते हुए कहा. ‘‘मर जाऊंगी, यही कहना चाहते हैं आप. मैं जी ही कब रही थी. अब तक का मेरा पूरा जीवन विवशताओं और वेदनाओं के चक्रव्यूह में फंसा रहा लेकिन स्वेच्छा और स्वतंत्रता से मरने का अधिकार तो मत छीनिए,’’ कहती हुई नंदिता अब पूरी तरह असंतुलित हो चुकी थी. मैं सम?ा नहीं पा रहा था क्या कहूं.

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