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लेखक-एस भाग्यम शर्मा

मैं एक पौश कालोनी में रहती हूं. मेरे साथ मेरे वृद्ध पिता रहते हैं. मैं इस कालोनी में 15 वर्षों से रह रही हूं. पड़ोस के मकान. जिस की बाउंड्री एक ही है, में रहने वाले उसे बेच कर अपने बच्चों के पास चले गए. यहां मकान बहुत महंगे हैं. उस को 60 साल की एक महिला ने खरीदा. उसे नया बनाने में बहुत पैसा खर्च किया. उसे मौडर्न बनवा लिया. सारी सुविधाएं मुहैया करवाईं. फिर वे रहने आईं.

वे बहुत ही प्यारी व सुंदर महिला थीं. वे किसी से बात नहीं करती थीं, सिर्फ मुसकरा देती थीं. कहीं जाना हो तो अपनी बड़ी सी कार में बैठ कर चली जातीं. हमारी और उन की कामवाली बाई एक ही थी. जो थोड़ीबहुत मेरी उत्सुकता को कम करने की कोशिश करती. पूरे महल्ले वालों को उन के बारे में जानने की उत्सुकता तो थी, पर जानें कैसे?

वे कोई त्योहार नहीं मनाती थीं. नाश्ता वगैरह नहीं बनाती थीं. बाई, जिसे मैं समाचारवाहक ही कहूंगी, कहती, ‘कैसी औरत है, न वार माने न त्योहार. पूछो तो कहती है कि इन बातों में क्या रखा है. शुद्ध ताजा बनाओ और खाओ.’ वे अकसर दलिया ही बनातीं.

कभीकभी मैं सोचती कि बाई के हाथ कुछ नाश्ता भेज दूं. फिर कभी डरतेडरते भेज देती. वे महिला पहले मना करतीं, फिर ले लेतीं. मुझे बरतन लौटाते समय कोई फल रख कर दे देतीं. उन से बोलने की तो इच्छा होती पर मैं क्या, महल्ले का कोई भी उन से नहीं बोलता. मैं अपने पिता से ही कितनी बात करती. मैं सर्विस करती थी, सुबह जा कर शाम आती थी. इसीलिए मुझे ताकझांक करने की आदत नहीं है.

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