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लेखक-एस भाग्यम शर्मा

 

मैं ने कहा, “आज मुझे फुरसत ही फुरसत है. आप को समय हो और आप बताना चाहें, तो बता दें. आज पापा का खाना उन के फ्रैंड के साथ है. मैं अकेली हूं. आज मेरी छुट्टी है.”

“अच्छा, तो रमा बैठो, मेरी कहानी सुन लो और यहीं खाना भी खा लेना. मेरा बेटा सुंदर काम से बाहर गया हुआ है.”

“सुनाइए आंटी.”

“मेरा आईएएस में सिलैक्शन हो गया था. मसूरी में ट्रेनिंग चल रही थी. सुदूर दक्षिण भारत के तमिलनाडु प्रांत से आए रघुपति स्मार्ट, सुंदर और होशियार थे. हम दोनों एकदूसरे की तरफ आकर्षित हुए. दोनों के घरवालों के विरोध के बावजूद हम ने शादी करने की ठान ली. शादी भी हो गई. थोड़े दिनों तक सब ठीकठाक रहा. मेरा बेटा भी हो गया. रघुपति के मांबाप ने बेटे से समझौता कर लिया और मुझ से कहा कि अपने बेटे को हमारे पास छोड़ दो. हम उसे पालपोस कर बड़ा करेंगे.

“मेरी इच्छा ऐसी नहीं थी. पर सब ने मुझे समझाया, बच्चे के दादादादी उस को तुम से ज्यादा अच्छे से रखेंगे. तुम्हें नौकरी करते हुए छोटे बच्चे को साथ रखने में परेशानी होगी. मेरी नौकरी दौरे की थी, बारबार दौरे पर जाना पड़ता था.

“हैडक्वार्टर में थी, तब भी सुबहशाम घर आनेजाने का कोई ठिकाना नहीं था. मेरे मातापिता ने भी इसे ठीक समझा. मैं विवश थी. नौकरों के भरोसे बच्चों को पालना मुश्किल था. शुरू में सब ठीकठाक था. छुट्टी होते ही बच्चे के मोह में ससुराल जातीआती रही. बाद में मेरी ससुराल वालों को मेरा आनाजाना खलने लगा. मेरे पति रघुपति कहते, ‘सही तो है न, तुम बारबार आओगी तो बेटा उन के पास कैसे रहेगा?’ वह बात भी मैं मान गई.

“जब छुट्टी होती तो वे अपने घर चले जाते. मेरी उपेक्षा करने लगे. मैं काम के बोझ में व्यस्त होती गई. जब  बेटे से मिलने जाती तो वे लड़ाईझगड़ा करते. मेरा बेटा सुंदर मुझ से ज्यादा अपने दादादादी और पिता से जुड़ा था. मेरा जीना ही मुश्किल हो गया,” यह कहते हुए बोलीं, “चलो, चाय पीते हैं.”

मैं ने कहा, “आंटी, मुझे तो आप के हाथ की फिल्टर कौफी पीनी है. उस की खुशबू हमारे घर तक आती है.”

“अरे, जरूरजरूर. लो, मेरा बेटा भी आ गया. वह भी इस समय कौफी पीता है. हम साथसाथ पिएंगे.”

मुझे संकोच हुआ. वे बोलीं, “तुम आराम से बैठे. मेरा बेटा सोमू मेरे जैसा नहीं है, बहुत सोशल है.” हम पहले ही मिल चुके थे. उन के बेटे ने भी मुझ से बैठने का आग्रह किया. सुंदरम मुझ से पापा के बारे में पूछने लगे. बातों ही बातों में मैं ने बताया कि पापा का मन नहीं लगता. उस ने पूछा, “पापा को क्याक्या शौक हैं?”

“पढ़ने का, गार्डनिंग, राजनीति बहस करने का.”

“अरे वाह, मेरा उन के साथ मन लग जाएगा. मैं भी इन बातों का शौक रखता हूं.”

“फिर तो आप घर जरूर आइएगा, मिल कर बातें करेंगे.”

इतने में कौफी आ गई. हम सब ने कौफी पी, फिर मैं घर आने को हुई तो गीता आंटी बोलीं, “आगे की कहानी बाद में सुनाऊंगी, अभी खाना बनाना है.”

अगले दिन सुंदरम आ गए. पापा  मेरे बड़े बातूनी हैं. दोनों की जोड़ी जोरदार थी, खूब बातें कर रहे थे. मैं भी उन के साथ बैठ गई बातें करने लगी‌.

सुंदरम पापा से बात करते पर मेरी तरफ भी देखते जाते. इस उम्र में भी मेरे अंदर एक सिहरन सी दौड़ गई. यह कैसे है, मुझे पता नहीं. सोमसुंदरम की बातें सुनती रहूं, ऐसा लगता. मुझे आज तक किसी के लिए ऐसा नहीं लगा. अब ऐसा क्यों लग रहा है?

पापा और सोमसुंदरम दोनों वाकिंग पर जाते. कई बार रात में क्लबों में जाते. पापा खेल के बहुत शौकीन हैं, ऐसे ही आंटी का बेटा भी. दोनों में पटने लगी. जब दोनों जाते तब मैं आंटी के पास चली जाती. वे अपनी कहानी सुनाने लगतीं. वही धारावाहिक सीरियल जैसे मुझे सुनातीं. मुझे भी बहुत इंटरैस्ट आने लगा.

वे कहने लगीं, “मेरे पास मेरे पति का आना करीबकरीब बंद हो गया. वे आते, तो भी उन के पास शिकायतों का पिटारा ही होता. ससुराल जाती, तो कोई सीधेमुंह बात न करता. बच्चे को मेरे पास न आने देने के लिए कई बहाने बनाए जाते थे. बच्चा जैसेजैसे बड़ा होता गया, मुझ से दूर होता गया. उसे मेरे खिलाफ झूठी बातें कह कर भड़काया जाता था. मेरे लिए जीना ही दूभर हो गया. मैं ने तय कर लिया कि ऐसी जिंदगी जीने से क्या फायदा, मैं ने तलाक देने के लिए कहा.

“वे यही तो चाहते थे. पर बच्चे को देने से मना कर दिया. रघुपति ने तब तक अपना ट्रांसफर भी मेरी ससुराल में ही करवा लिया था. ‘बच्चा मेरे मांबाप के पास ही रहेगा. मैं भी यहां हूं. यह अकेली उसे कैसे रखेगी?’ कोर्ट में रघुपति ने कह दिया. सोमू ने भी अदालत में पिता के पास रहने की जिद की और जज ने उसे पिता के पास सौंपने का फैसला सुनाया.”

उन की कहानी सुन कर मेरा जी भर आया.

वे आगे कहने लगीं, “मैं हफ्ते में एक दिन या महीने में 4 दिन बच्चे से मिल सकती थी. अब सोमू बड़ा हो गया था. वह मुझ से बात नहीं करना चाहता था. मुझे देख कर अंदर भाग जाता. कुत्ते से खेलने लगता, रोने लगता और कहता, ‘तुम गंदी हो, मत आओ. आप मेरी मम्मी नहीं हो.’ इसे मैं सहन न कर पाती थी. जब वहां जा कर आती, मन प्रसन्न होने के बजाय बहुत दुखी होता. मुझे इस हालत में देख कर मम्मीपापा भी बहुत दुखी होते. वे कहते, ‘जब वहां जा कर दुखी होती हो तो बारबार जाने की क्या जरूरत है.’

“बच्चे को देखने की इच्छा को मैं रोक नहीं पाती. किसी से मिल कर मन प्रसन्न हो, तब ही जाना चाहिए. हम मंदिर जाते हैं, मसजिद जाते हैं या गुरुद्वारे में जाना चाहते हैं, क्यों? इस बात को समझो. मैं अपनेआप को समझाने की बहुत कोशिश करती, पर मन है कि मानता ही नहीं. मेरे खिलाफ उन लोगों ने सोमू में जहर भर दिया था. उस जहर को निकालना मेरे वश के बाहर था.

“इस बीच मेरा ट्रांसफर बहुत दूर हो गया. फिर भी कोशिश कर के आती, तो वही पुरानी बातें दोहराई जाती थीं. अंत में तंग आ कर जाना छोड़ दिया.”

इस बीच, सोमू आ गया. बातों में हम ने ध्यान नहीं दिया. वह हमारे लिए कौफी बना कर ले आया. वह भी हमारे बीच बैठ गया. मैं संकोचवश उठने लगी. “अरे, बैठो रमा, मेरे बेटे को कोई फर्क नहीं पड़ता. वह पहले जैसा तो है नहीं.”

मैं बोली, “बच्चों के बिना रहना तो बहुत मुश्किल है.”

“हां रे, तू सही कह रही है. पर कुदरत ने मुझे बच्चा दे कर भी मुझ से छीन लिया. किसी के बच्चे होते ही नहीं हैं. मेरे होने के बावजूद नहीं जैसे हो गया. मैं ने काम में मन लगाया और तरक्की पाती चली गई. एक बार सोमू की बहुत याद आने पर मैं एक हफ्ते की छुट्टी ले कर गई. तो पता चला वे बच्चे को ले कर विदेश चले गए. मैं ने सोचा, वे वापस आ जाएंगे, पर वे फिर नहीं आए.

 

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