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मैं जब भी गांव जाता, पट्टी वाले आम को देखने जरूर जाता. पता नहीं हमारे किस बुजुर्ग ने उसे लगाया था. मीठा और रसीला आम. अपने जीवनकाल में ऐसे मीठे आम मैं ने कभी नहीं खाए थे. पूरे गांव के आम खत्म हो जाते थे पर हमारे इस पेड़ के आम जल्दी खत्म नहीं होते थे.

परिवार बिखरा. सब अपनेअपने हिस्से की जमीन बेच कर चले गए. पर मैं ने अपने बजुर्गों की जमीनों को शरीकों (साझीदारों) के हाथों नहीं जाने दिया. उस में मेरे पिताजी का बनाया हुआ मकान भी था. मन के भीतर केवल मोह यह था कि मैं अपनी धरती से जुड़ा रहूंगा. गांव के लगाव को छोड़ नहीं सका. गांव के बहुत से लागों ने समझाया कि आप तो सेना के अफसर हो। बाहर रहते हो. पैंशन के बाद भी यहां आ कर न रह सकोगे. इस घर और जमीन को बेच दो.

शरीकों को लालच था. मैं उन की बात को समझ रहा था. पर मैं नहीं माना. बच्चों ने भी कहा कि आप अकेले यहां रहेंगे, हम नहीं आ पाएंगे.पट्टी वाले आम के साथ के खेत और मकान को मैं ने अपने भाई लोगों से खरीद लिया था. मकान को नए सिरे से बनवाया, जिस में हर तरह की सुविधाएं थीं.

मैं ने अपने बचपन के दोस्त घीसू को मकान और जमीन का केयरटेकर बना दिया था. मैं जब भी छुट्टी पर आता, गांव जरूर जाता.सेवामुक्त होने के बाद मैं ने स्थाई रूप से गांव में रहने का मन बना लिया था. मैं ने अपनी पत्नी को समझाया, "बच्चों की अपनी जिंदगी है. वे अपनेअपने परिवारों में मस्त हैं. उन को अपने ढंग से जीने दो. हम अपने ढंग से जीवन जीएंगे. उन को लगना नहीं चाहिए कि अब मांबाप की जिम्मेदारी भी उन पर आ पड़ी है. तुम अपने उस घर को एक बार देख लो. सारी सुविधाएं उपलब्ध हैं. बच्चे भी कभीकभी पिकनिक के तौर पर आते रहेंगे.

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