दीप्ति कोई जवाब न दे पाती. उस के चेहरे पर नागवारी के भाव साफ झलकते थे. अपना गुस्सा वह मां से व्यक्त नहीं कर सकती थी, इसलिए अपना गुस्सा कभी बरतनों पर उतारती, तो कभी पूर्वी पर. मां यह सब देखते हुए आंखें बंद किए रहतीं.
शुरूशुरू मेें तो दिव्या को यही लगा था कि 2-4 दिन बाद घर की सारी जिम्मेदारी उस पर डाल दी जाएगी. लेकिन 15 दिन बीत जाने के बाद भी उस से कोई काम छूने को नहीं कहा जा रहा था. उस रोज भी घर पर कुछ मेहमान आने वाले थे. उन का भी खाना बनना था. दिव्या जाना नहीं चाहती थी, लेकिन सास आग्रह कर के उसे मंदिर ले गईं. हां, पूर्वी को जरूर साथ ले लिया था.
दिव्या ननद दीप्ति की मदद के लिए रुकना चाहती थी, पर सास ने उसे रुकने नहीं दिया. रास्ते में दिव्या ने कहा था, ‘‘आज तो दीप्ति दीदी को बहुत काम पड़ जाएगा. मुझे घर में छोड़ दिया होता, तो थोड़ी उन्हें मदद मिल जाती. सौरभ ने मुझ से कहा था.’’
‘‘क्या करना है, क्या नहीं करना है, मुझे अच्छी तरह पता है. मैं जो कहूं, तुम्हें सिर्फ वही करना है. उस से ज्यादा न तुम्हें कुछ करना है और न सोचना है,’’ दिव्या की सास ने कहा.
उस दिन दीप्ति ने जानबूझ कर सब्जी खराब कर दी थी. मंदिर से लौट कर दिव्या की सास ने खुद सब्जी बनाई. साथ ही, कुछ बनीबनाई सब्जी बाजार से मंगा कर काम चलाया. लेकिन मेहमानों के जाने के बाद वे दीप्ति पर इस तरह बरस पड़ीं, जैसे वह उन की सगी मां न हो कर सौतेली मां हो.
उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हें पता था कि मेहमान आने वाले हैं, फिर भी इस तरह का खाना बनाया. एक जून का खाना भी ढंग से नहीं बना सकती. जिस तरह का खाना बनाया था, इसी तरह का खाना बनाना मैं ने तुम्हें सिखाया था.’’