नयन...हां, नयन को ही खोज कर लाया था, विनायक. 20 साल की लंबी, सांवली, छरहरी बंगाली लड़की...सदर मुकाम खुलना...वहीं से अपने चाचा राखाल के साथ शरणार्थी बन कर वह 1981 में बंगलादेश की सीमा पार कर पहले कलकत्ता, फिर वहां से दिल्ली और अंत में दिल्ली से गाजियाबाद आई थी. राखाल, भैया की कपड़े की दुकान में काम करता था. दिनभर ग्राहक निबटाने के बाद वह रात 9 बजे पूरा हिसाबकिताब निबटा कर गुलजारी लाला के ठेके से शराब पीता हुआ अपने घर लौटता था. पैसे के लिए मुंह न फाड़ने वाला राखाल दारू वाले ऐब के अलावा बाकी सब मामलों में सीधासादा, काम से काम रखने वाला एक मुनासिब किस्म का आदमी था. प्रथम श्रेणी में एमए करने के बाद विनायक भी सुबह 9 से 12 बजे तक दुकान में बैठता था. दुकान में ही भोजन कर के लाइब्रेरी चला जाता, जहां से पढ़ कर शाम को 5-6 बजे तक घर वापस आता. कुछ देर वह नौटी को पढ़ाता या उस के साथ खेलता. भाभी के साथ रात 9 साढ़े 9 बजे खाना खाता. फिर 2-3 घंटे पढ़ता और सो जाता. वह अखिल भारतीय या इसी किस्म की दूसरी सेवाओं में जाना चाहता था. उस की भाभी भी यही चाहती थीं, लेकिन भैया, विनायक की बात सुन कर धमकी देने लगते थे, ‘भई, हम से अकेले यह सब नहीं होता. यदि विनायक नौकरी पर गया तो मैं दुकान बंद कर घर बैठ जाऊंगा.’
एक दिन भैया किसी पेशी में कोर्ट गए हुए थे. वह अकेला राखाल के साथ दुकान देख रहा था कि एक लड़का उस के सामने तह की हुई एक चिट्ठी फेंक कर भाग गया.
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