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बगुले के पंखों की तरह झक सफेद बर्फ, रुई के छोटेछोटे फाहों के रूप में गिर रही थी. यह सिलसिला परसों शुरू हुआ था और लगा था, कभी रुकेगा नहीं. लेकिन पूरे 44 घंटे बाद बर्फबारी थमी. पता नहीं रात के कितने बजे थे. आकाश में पूरा चांद मुसकरा रहा था.

विनायक बिस्तर पर उठ कर बैठ गया. उस ने अपने एक हाथ से दूसरा हाथ छुआ. लेकिन पता न चल सका कि बुखार उतरा या नहीं. जब बर्फ गिरनी शुरू हुई थी तो उसे होश था. उस ने 2 गोलियां खाई थीं. लेकिन उन से कुछ हुआ नहीं था. उस ने अनुमान लगाया कि वह पूरे 2 दिनों तक अवचेतनावस्था में अपने बिस्तर में पड़ा रहा था. भूखप्यास तथा 2 दिनों तक बिस्तर में निष्क्रिय पड़े रहने से उपजी थकान ने शरीर के हर हिस्से में दर्द भर दिया था.

विनायक ने खिड़की के शीशे के पीछे मुसकरा रहे चांद के साथ आंख लड़ाने का खेल शुरू किया. 1 मिनट, 2 मिनट, फिर उस ने थक कर अपनी आंखें नीचे झुका लीं. उस ने अपनेआप से कहा, ‘इश्क करने में भला कोई चांद से जीता है, जो मैं जीतूंगा. जीतता तो यहां इतना लाचार, इस कदर तनहा क्यों पड़ा होता.’

दूनागिरि के उस उपेक्षित से बिमलजी के मकान की दूसरी मंजिल का खुलाखुला सहमासहमा सा कमरा. विनायक ने अपने अंतर में दस्तक दी, ‘दोस्त, तुम अपनी जिंदगी की किताब के तमाम पन्ने मथुरा, हरिद्वार, ऋषिकेश, नैनीताल और न जाने कहांकहां के होटलों, गैस्टहाउसों में छितरा कर अब आखिरी पन्ना फाड़ कर फेंक देने के लिए यहां आ गए हो.’

खिड़की के उस पार चमक रहा चांद फिर धुंध में सिमट गया. बाहर रेशारेशा बन कर गिर रही बर्फ फिर दिखलाई पड़ने लगी. दोस्त का पैगाम… ‘लो भई विनायक, मौत आ गई,’ आ गया, ‘एक परी आएगी, तुम से तुम्हारी जिंदगी छीन कर ले जाएगी. फिर इस धरती पर तुम्हारी पहचान खत्म, नयन की याद खत्म,’ उस ने घुटनों में अपना सिर रख कर अपने सिर्फ एक ऐसे गुनाह से रिहाई पाने की कोशिश की, जो कि उस ने किया ही नहीं था.

पतझड़, पेड़ों की पातविहीन नंगी डालें, नीचे गिरे हुए अरबोंखरबों पत्ते, फिर वसंत आएगा, फिर नई कोंपलें, नए फल, नए फूल उगेंगे. मौत से जिंदगी छीन लाने का वही पुराना खेल. अब के बिछुड़े कब मिलें, कहां मिलें, मिलें भी कि न मिलें, कुछ पता नहीं. लेकिन नयन से माफी वसूलने की बात…और कमरे के भीतर भूख, प्यास, बुखार से छटपटा रहा विनायक.

‘प्रायश्चित्त…स्वीकारोक्ति से तुम अपनी की गलती से नजात पा सकते हो?’ बहुत पहले एक वृद्धा के मुख से उस ने ये शब्द सुने थे. प्रायश्चित्त वह कर रहा है, लेकिन स्वीकारोक्ति? ‘कहां पाऊं नयन को जो स्वीकारोक्ति करूं?’

रजाई की परतों में छिपी यातना से बेहोश हो रही विनायक की काया. कल, परसों, नहीं, 5 साल पहले…

अपने पिता की विनायक को कुछ याद नहीं थी. सभी कहते थे कि वह अपने पिता की हूबहू नकल है. उसे मां की याद है. मामूली बुखार से हार कर वे चल बसी थीं. घर में बड़े भाई सुधाकर, भाभी अहिल्या तथा उन की 11 साल की बेटी कालिंदी, यही उस के अपने शेष थे. कालिंदी पूरी आफत थी. सारा दिन लौन में तितलियां पकड़ने से ले कर बंगले के बाहर लगे आम, कटहल, नीबू तथा जामुन के पेड़ों की खोहों से गिलहरी, चिडि़या के बच्चे पकड़ने का काम वह पूरे उत्साह के साथ किया करती थी. इसी से विनायक ने उस का नाम नौटी यानी शरारती रख दिया था.

 

दूनागिरि का वह मकान…दूसरी मंजिल का कमरा. बर्फ व अंधड़ से बिजली के खंभे टूट गए थे. पानी सप्लाई की लाइनें फट चुकी थीं. बिजली नहीं, पानी नहीं. उसे निपट अकेला छोड़ कर उस के मकानमालिक बिमलजी सपरिवार नीचे लालकुंआ चले गए थे.

उस ने नीचे उतर कर उन का घर टटोला. मिट्टी के सकोरे में डबलरोटी के टुकड़े, एक बोतल में थोड़ा सा कड़वा तेल, 2 दौनों में बांध कर सहेजा हुआ पावडेढ़पाव गुड़, एक छींके पर टंगे हुए गिनती के 15 आलू और इतने ही प्याज. छींके में ही 10 ग्राम चाय का पैकेट रखा था. बिमलजी की पत्नी 45 वर्ष की अधेड़, निखरे रंग की सुंदर, सुघढ़ महिला थीं. उन्होंने एक बार दबे मन से विनायक के लिए कुछ करने की बात कही थी लेकिन बिमलजी ने यह कह कर, ‘मरने वाले के साथ खुद नहीं मरा जाता,’ उन्हें चुप करा दिया था.

चिमटे से बर्फ खोद कर उस ने स्टोव पर अपने लिए बगैर दूध वाली गुड़ की चाय बनाई. बर्फ से सख्त डबलरोटी के एक टुकड़े को चाय में डुबोडुबो कर खाया. पर लगा, कुछ भी भीतर जाने को तैयार नहीं है. उस ने पूरी मनोशक्ति लगा कर भीतर के पदार्थ को बाहर आने से रोका. विनायक को लगा कि चायरोटी के बावजूद उस की 2 दिनों की भूखी काया की प्रतिरोधक शक्ति में कोई वृद्घि नहीं हुई है. बिस्तर में घुसते ही अर्धचेतनावस्था ने उसे फिर घेर लिया.

भैया, भाभी और नौटी, जो कि छठी क्लास में फिर फेल हो गई थी, फेल होने का उसे कोई मलाल नहीं था. विनायक ने नौटी को पढ़ाने की कोशिश की, मगर नतीजा…वह खुद भी लड़की के साथ तितलियों, गिलहरियों के पीछे भागने लगा. अहिल्या कभी खीझ कर तो कभी मुसकरा कर अपना माथा पीटने लगती, ‘कमाल की लड़की जन्मी है मेरी कोख से…आज चाचा को गिलहरी के पीछे दौड़ा रही है, कल बाप को दौड़ाएगी और फिर ससुराल जा कर मेरा नाम रोशन करेगी.’

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