‘‘मां का फोन आया था अभीअभी.
2 लाख रुपए मांग रही थीं गुरु महाराज के आश्रम में भवन निर्माण के लिए,’’ मैं ने रश्मि की राय लेनी चाही.
‘‘कब विवेक जागेगा इन का. क्यों इन बाबाओं के पीछे बरबाद होने पर तुले हैं. आप ने यह नहीं बताया कि हम फ्लैट बुक कर रहे हैं.’’
‘‘बताया था, लेकिन सुनें तब न. तुम्हीं बताओ मैं क्या करूं? कन्नू तो 3 लाख रुपए दे रहा है.’’
‘‘बड़ी दुविधा में डाल दिया है मांजी ने,’’ रश्मि निराशा से बोली.
‘‘फ्लैट का क्या होगा. इस बार कदम वापस खींचे तो जिंदगी किराए के घरों में ही कटेगी,’’ मैं ने हताशाभरे स्वर में कहा.
‘‘इस वक्त इन्हें हमारी मदद करनी चाहिए थी. खैर, चिंता छोड़ो और 2 लाख रुपए भेज दो. जब फ्लैट लेने की ठान ली है तो कुछ न कुछ करेंगे,’’ उस ने समझाया.
‘‘ठीक है, तुम कहती हो तो...’’
मुझे लगा जैसे एक बड़े बैलून की हवा एक क्षण में निकाल दी गई हो. शरीर रुई सा हलका हो गया. लेकिन एक नई मुश्किल खड़ी हो गई कि कैसे 2 लाख रुपए की अतिरिक्त व्यवस्था की जाए.
किसी तरह मां को 2 लाख रुपए भेज दिए. कन्नू से अपनी जरूरत बताई तो वह टाल गया किंतु कुछ मित्रों ने आड़े समय मदद कर दी. समय पर रश्मि के पिता ने भी रुपए भेज दिए. इस तरह फ्लैट बुक हो गया. कुछ दिनों में बैंक से लोन भी पास हो गया. इस भागमभाग में शरीर थक सा गया. अब समस्या थी कर्ज चुकाने के साथ गृहस्थी चलाने की. कठिन समय था. रश्मि साइंस से ग्रेजुएट थी, सो उस ने कुछ ट्यूशन पकड़ लीं. एकएक दिन पहाड़ की तरह कठोर और लंबा लगता. खर्चों में कटौती, किस्तों की भरपाई करते हुए साल कट गया. रश्मि पगपग पर मेरा हौसला बढ़ाती रही.