सुजाता सिर्फ शारीरिक रूप से ही नहीं, मानसिक रूप से भी व्यस्त थीं. नौकरी की व्यस्तता के कारण उन का ध्यान दूसरी कई फालतू बातों की तरफ नहीं जाने पाता था. दूसरा, सोचने का आयाम बहुत बड़ा था. कई बातें उन की सोच में रुकती ही नहीं थीं. इधर से शुरू हो कर उधर गुजर जाती थीं.
2 बज गए थे. लंच का समय हो गया था. बच्चे अभी होटल से नहीं आए थे. सरस ने एकदो बार फोन करने की पेशकश की, पर सुजाता ने सख्ती से मना कर दिया कि उन्हें फोन कर के डिस्टर्ब करना गलत है.
‘‘तुम्हें भूख लग रही है, सरस, तो हम खाना खा लेते हैं.’’
‘‘बच्चों का इंतजार कर लेते हैं.’’
‘‘बच्चे तो अब यहीं रहेंगे. थोड़ी देर और देखते हैं, फिर खा लेते हैं. न उन्हें बांधो, न खुद बंधो. वे आएंगे तो उन के साथ कुछ मीठा खा लेंगे.’’
सुजाता के जोर देने पर थोड़ी देर
बाद सुजाता व सरस ने खाना खा लिया. बच्चे 4 बजे के करीब आए. वे सो कर ही 2 बजे उठे थे. अब कुछ फ्रैश लग रहे थे. उन के आने से घर में चहलपहल हो गई. सरस और सुजाता को लगा बिना मौसम बहार आ गई हो. सुजाता ने उन का कमरा व्यवस्थित कर दिया था. बच्चों का भी होटल जाने का कोई मूड नहीं था. परिमल भी अपने ही कमरे में रहना चाहता था. इसलिए वे अपनी अटैचियां साथ ले कर आ गए थे. थोड़ी देर घर में रौनक कर, खाना खा कर बच्चे फिर अपने कमरे में समा गए.
अवनी अपनी मम्मी को फोन करना फिर भूल गई. बेचैनी में मानसी का दिन नहीं कट रहा था. दोबारा फोन मिलाने पर अवनी की सुबह की डांट याद आ रही थी. इसलिए थकहार कर समधिन सुजाता को फोन मिला दिया. थकी हुई सुजाता भी लंच के बाद नींद के सागर में गोते लगा रही थीं. घंटी की आवाज से बमुश्किल आंखें खोल कर मोबाइल पर नजरें गड़ाईं. समधिन मानसी का नाम देख कर हड़बड़ा कर उठ कर बैठ गईं.