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धीरेधीरे चल कर मैं बाहर की बालकनी में आ कर बैठ जाती हूं. नवंबर का महीना है. ठंडी हवा चल रही है. बाहर खामोशी है. शायद तूफान आने वाला है. मैं शाल को ठीक से लपेट कर कुरसी पर बैठ जाती हूं. अंधेरा घिर आया है. बालकनी की लाइट जलाने का मन नहीं हुआ. भीतर के तूफान को कैसे रोकूं ? बस यही समझ नहीं आ रहा था.

जीवन की आपाधापी में पता ही नहीं चला कि कब 45 साल बीत गए. उन का साथ छूट गया. कल ही उठाले के बाद सब चले गए थे. खामोशी काटने को दौड़ रही थी. भीतर के दुख से आंखों के कोर गीले हो गए थे.

मुझे आज भी याद है, जब मैं ब्याह कर आई थी. एक कमरे का घर, शौच भी बाहर जाना पड़ता था. परदा लगा कर नहाने की व्यवस्था थी, बाकी खाली मैदान था. पूरे प्लाट को घेरा भी नहीं गया था. वह भी बाद में पता चला उन की बहन और जीजे ने धोखे से अपने नाम करवा लिया था. कभी रही होगी कोई कड़वाहट, पर अब इन की कोई औकात नहीं थी. मुझे भी पति के प्यार के अलावा कुछ नहीं मिला था. कभी मिलता, कई बार सालोंसाल नहीं भी मिलता. परिवार ऐसा मिला, जिन्होंने इन को धोखे के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिया था. ये बाहर सेना में रहे, इन को परिवार की धोखेबाजियों के बारे में पता नहीं था. यह कहते

तो मैं इन पर यकीन नहीं कर पाती थी. कैसे कोई अपनी मां, बहनभाइयों के बारे में नहीं जानता था. इस के लिए हमेशा मैं ने इन्हें लताड़ा. वे सफाई देते रहे थे, पर मैं ने इसे कभी नहीं माना था. आज लगता है कि शायद वे ठीक कहते थे.

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