लेखक- आर एस खरे
फिर अनायास एक दिन अनजाने में ऐसा कुछ हुआ जिस ने सबकुछ उलटपलट कर दिया. नवंबर माह के तीसरे शनिवार की बालसभा में उस दिन मंच पर प्रधानाध्यापक के साथ खादी का कुरतापाजामा पहने व गांधी टोपी लगाए हरिजन सेवक संघ के पदाधिकारी बैठे थे. उन के स्वागत के पश्चात हमारे प्रधानाध्यापक ने बताया कि मंच पर आसीन अतिथि नारायण प्रसाद ने लंबे समय तक गांधीजी के साथ ‘अस्पृश्यता निवारण’ का काम किया है और अब वे हरिजनों के उत्थान के लिए अपने संभाग में काम कर रहे हैं. परिचय उपरांत नारायण प्रसाद ने पहले तो हरिजन सेवक संघ द्वारा किए जाने वाले कार्यों का ब्योरा दिया, फिर उन्होंने खुशखबरी सुनाई थी कि हमारे विद्यालय के तीनों हरिजन छात्रों को उन का संघ गोद ले रहा है. तीन नामों में एक नाम जमना का भी था. अब आगे इन तीनों की पूरी पढ़ाई का खर्चा हरिजन सेवक संघ उठाएगा.
हमारी कक्षा के छात्रों को जैसे ही पता चला कि जमना हरिजन है, वे उस से दूरी बनाने लगे थे. अब वे कोशिश करते कि जमना धोखे से भी उन से छू न जाए. कुछ विद्यार्थी मुझ से भी कहते कि उस बैंच पर न बैठूं, जिस पर जमना बैठता है. मुझे उस समय तक ऐसा कोई भान नहीं था कि किसी के हरिजन होने से उस से दूर क्यों बैठना है. पर कुछ दिनों में ही वह मनहूस घड़ी भी आ गई. यह दिसंबर के उस रविवार की बात थी जब पूरे देश में सूर्यग्रहण के कारण सब लोग अपनेअपने घरों में दुबके हुए थे. यहां तक कि हमारे घर में लकड़ी की बनी खिड़कियों एवं दरवाजों की दरारों को भी मां ने चादर से ढक दिया था, ताकि सूर्य की हलकी सी भी किरण छन कर अंदर न आ सके. उस समय वैज्ञानिक चेतना का इतना प्रचारप्रसार नहीं था और देश के अधिकांश भाग में प्राचीन भ्रांतियां व्याप्त थीं. आज वह सब सोच कर भले ही हंसी आए, पर 70 -75 वर्ष पहले सच यही था.
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