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तन्वी पिता के साथ मायके चली गई. हमारी सैंट्रो कार उस ने रख ली. ड्राइवर ने लौट कर बताया कि मेम साहब ने कार वापस ले जाने से इनकार किया है. प्रणव ने तन्वी के घर फोन कर के माजरा पूछा तो उस के पिता ने रूखे स्वर में उत्तर दिया, ‘कार तो तन्वी की ही थी, इसलिए उस ने रख ली.’

‘तन्वी की?’ प्रणव ने आश्चर्य से पूछा था.

‘जी हां, कार धवल के नाम है और पत्नी होने के नाते उस पर तन्वी का हक है.’

इतना कह कर उन्होंने प्रणव के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही रिसीवर रख दिया था. उन का जवाब सुन कर हम सन्न रह गए.

दूसरे दिन जब प्रणव औफिस गए तो वहां ताला लगा था और धवल के स्थान पर तन्वी की नेमप्लेट लगी थी. प्रणव परेशान हो उठे. वह विशाल इमारत, जिस में प्रणव का औफिस और नीचे कई दुकानें, बैंक, होटल आदि बने थे, 2 वर्षों पहले ही हम ने धवल के नाम से खरीदी थीं. धवल की पत्नी होने के कारण अब तन्वी उन पर अपना हक जता रही थी.

तन्वी के पिता वकील थे, किसी भी शख्स पर कोई भी इलजाम साबित करने में माहिर. प्रणव द्वारा आधी जायदाद तन्वी को देने का प्रस्ताव ठुकराने के बाद उन्होंने हमारे खिलाफ मुकदमा दायर किया कि हम तन्वी को प्रताडि़त करते थे और प्रणव ने उस के साथ बलात्कार का प्रयास भी किया था.

जिस के चरित्र पर कभी जवानी में भी कोई दाग नहीं लगा उस प्रणव पर बुढ़ापे में बलात्कार जैसा घिनौना आरोप लगाया गया, वह भी पुत्रवधू द्वारा. जवान बेटे की मौत का गम वैसे ही कम नहीं था, फिर यह बदनामी का कहर हम पर टूट पड़ा. अखबारों ने हमारे कथित जुल्मों को सुर्खियों में उछाला. नारी संगठनों ने हमारे घर के सामने नारेबाजी कर प्रदर्शन किए. हम किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रह गए. जीना दूभर हो गया. लोग मुंह से तो कुछ नहीं कहते, मगर अजीब नजरों से घूरते थे.

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