सेवासुश्रुषा के बावजूद धवल की हालत बिगड़ती गई. उधर वत्सल हवाई दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल हो गया. विमान नीचे उतारते समय पहिए जाम हो गए. जान तो वत्सल की बच गई मगर उसे कई महीनों तक बिस्तर पर पड़े रहना पड़ा. हम बदहवास से कानपुर से मुंबई और मुंबई से कानपुर की दौड़ लगाते रहे.
अगर प्रणव को कैंसर हुआ होता तो शायद धवल उन के लिए इतनी भागदौड़ नहीं करता जितनी प्रणव ने जवान बेटे के लिए की. दौड़दौड़ कर उन के पैर सूज गए. रातदिन हम धवल के पास बैठे रहते. हमें खानेपीने और नहानेधोने का होश नहीं था. बेचारी तन्वी धवल के साथसाथ हमें भी संभाल रही थी.
जिसजिस ने जहांजहां चमत्कारी स्थल बताए वहांवहां हम ने फरियाद की कि धवल की बीमारी हमें दे दो, उसे चंगा कर दो. हम जी कर क्या करेंगे. हमारे मरने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ना है, पर हमारी फरियाद कुबूल नहीं हुई थी. धवल हमें छोड़ कर चला गया था.
तन्वी का विलाप हम से देखा नहीं गया था. धवल हमें अपने कंधों पर ले जाता तो यह शोभनीय लगता. दुनिया के सब बेटे अपने मातापिता को ले जाते आए हैं लेकिन नियति ने हमें विवश किया जवान बेटे की अरथी अपने कंधों पर ढोने के लिए.
चलनेफिरने में असमर्थ होने के कारण वत्सल कानपुर नहीं आ सका था. फोन पर उस ने प्रस्ताव रखा कि हम घर को ताला लगा कर उस के पास मुंबई चले आएं या ठीक होने के बाद वह नौकरी छोड़ कर कानपुर आ जाएगा और पिता का व्यवसाय संभालेगा. हम ने समझाया कि फिलहाल उसे परेशान होने की जरूरत नहीं है. जल्दबाजी में कोई कदम उठाना ठीक नहीं.