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निराश हो कर हम उन के घर से लौट आए. हम ने तो तन्वी को विवाह की स्वीकृति नहीं दी पर वह जिद करकर के धवल को राजी करने में सफल हो गई थी. धवल ने भावुक स्वर में कहा था, ‘मां, मैं तन्वी से विवाह करना चाहता हूं. उस का असीम प्यार देख कर मुझे नहीं लगता कि वह जीवन में किसी और पुरुष को स्वीकार कर पाएगी. हमें उस के प्यार की कद्र करनी चाहिए.’

हार कर फिर हम ने भी हथियार डाल दिए थे. सादे से समारोह में वे पतिपत्नी बन गए. ज्यादा भीड़ नहीं जुटाई थी हम ने. खास लोगों को ही बुलाया था. बड़े बेटे वत्सल को इस विवाह की सूचना नहीं दी. उस का स्वभाव उग्र है. हमें डर था कि वह आ कर हम से लड़ेगा और धवल को भी इस पागलपन के लिए डांटेगा.

धवल का मन रखने के लिए हम दुखी मन से उस के विवाह में शरीक हुए.

दुलहन बनी तन्वी बहुत सुंदर लग रही थी. हंसहंस कर वह परिचितों का स्वागत कर रही थी. उस के मातापिता हर आगंतुक के सामने बेटी के सच्चे प्यार और महान त्याग का बखान कर रहे थे. हर मेहमान नवदंपती के प्यार पर आश्चर्य प्रकट करता तन्वी की तारीफ कर रहा था.

मुझे यह सब बहुत अजीब लग रहा था. न जाने कैसे मातापिता थे वे, बेटी का संभावित वैधव्य उन के दिलों को क्यों नहीं दहला रहा था? मैं तो जितनी भी बार तन्वी को देखती, जी भर आता. इस का यह शृंगार कुछ ही दिनों का है, फिर इसे जीवन भर शृंगारविहीन रहना है, यह सोच कर कलेजा मुंह को आ रहा था. पकवानों से मेजें सजी थीं, पर मैं एक ग्रास भी गले से नहीं उतार पाई.

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