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जया उस के पास ही बैठ जाती है. फिर एकाएक कहती है, ‘‘मैं पूछती हूं, आखिर मुझे कब तक इसी तरह जलना होगा? कब तक मुझे मां की गालियां सुननी होंगी? कब तक देवरननदों के नखरे उठाने पड़ेंगे?’’

रोटी का कौर उस के मुंह में ही अटक जाता है. उस का मन जया के प्रति घोर नफरत से भर जाता है. वह क्रोधभरे स्वर में कहता है, ‘‘आखिर तुम्हें कब अक्ल आएगी, जया? तुम मेरा खून करने पर क्यों तुली हुई हो? कभी थोड़ाबहुत कुछ सोच भी लिया करो. कम से कम खाना तो आराम से खा लेने दिया करो. यदि तुम्हें कोई शिकायत है तो खाना खाने के बाद भी तो कह सकती हो. क्या यह जरूरी है कि जब भी मैं खाने बैठूं, तुम अपनी शिकायतें ले कर बैठ जाओ? प्यार की कोई बात करना तो दूर, हमेशा जलीकटी बातें ही करती रहती हो.’’ हमेशा की तरह जया रोने लगती है, ‘‘हां, मैं तो आप की दुश्मन हूं. आप का खून करना चाहती हूं. मैं तो आप की कुछ लगती ही नहीं हूं.’’

‘‘देखो जया, मैं मां से अलग नहीं हो सकता. इस घर के प्रति मेरी कुछ जिम्मेदारियां हैं. मैं उन से भाग नहीं सकता. तुम्हारे लिए अच्छा यही है कि तुम मां के साथ निभाना सीखो. अलग होने की जिद छोड़ दो.’’

‘‘नहीं,’’ वह रोतेरोते ही कहती है, ‘‘मैं नहीं निभा सकती. मुझ से मां की गालियां नहीं सही जातीं.’’

वह जानता है कि गालीगलौच करने की आदत मां की नहीं है. चूंकि जया अलग होना चाहती है, इसलिए हमेशा मां के खिलाफ बातें बनाती है. उसे समझाना बेकार है. वह समझना ही नहीं चाहती. उस के दिमाग में तो बस एक ही बात बैठी हुई है- अलग होने की. दुखी और परेशान हो कर वह खाना बीच में ही छोड़ कर उठ खड़ा होता है. घर से बाहर आ कर वह सड़कों पर घूमने लगता है. अपने दुख को हलका करने का प्रयास करता है. सोचता रहता है, यही जया कभी उस की मां से कितना स्नेह करती थी. आज उसे किस ने भड़का दिया है? किस ने उसे सलाह दी है अलग हो जाने की? कौन हो सकता है वह धूर्त इंसान? उसे ध्यान आता है जब से सुनयना इस घर में आने लगी है तभी से जया के तेवर भी बदलते जा रहे हैं. सुनयना जया की मौसेरी बहन है. वह अकसर घर में आती है. दोनों बहनें अलग कमरे में बैठी देर तक बातें करती रहती हैं. पता नहीं वे क्याक्या खुसुरफुसुर करती रहती हैं.

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