शादी के 3-4 दिनों बाद नवीन अपना सामान ले कर शालिनी के साथ किराए के मकान में रहने चला गया. मुझे यह अच्छा नहीं लगा. मैं सोच में पड़ गई, अपने अकेलेपन से छुटकारा पाने के लिए मैं ने एक बेटे को उस के पिता से अलग कर दिया. मुझे अपराधबोध सा सताने लगा. लगता, बहुत बड़ी गलती हो गई. इस बारे में मैं ने पहले क्यों नहीं सोचा? अपने स्वार्थ में दूसरे का अहित करने की बात सोच कर मैं मन मसोस कर रह जाती. भीतर एक टीस सी बनी रहती.
पर मैं ने आशा का दामन कभी नहीं छोड़ा था, फिर अब क्यों चैन से बैठ जाती. मैं ने एक नियम सा बना लिया. स्कूल से छुट्टी होने के बाद मैं शालिनी से मिलने उस के घर जाती. एक गाना है ना ‘हम यूं ही अगर रोज मिलते रहे तो देखिए एक दिन प्यार हो जाएगा...’ शालिनी एक सहज और समझदार लड़की थी. कुछ ही दिनों में उस ने मुझे अपनी सास के रूप में स्वीकार कर लिया.
मुझे ले कर उन पत्नी पति के बीच संवाद चलता रहा, नतीजतन धीरेधीरे नवीन ने भी मुझे अपनी मां का दर्जा दे दिया. एक भरेपूरे परिवार का मेरा सपना साकार हो गया. मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा. प्रेमकुमारजी के रिश्तेदारों की कानाफूसी से मुझे पता चला कि इतना अपनापन तो प्रेमकुमारजी की पहली पत्नी भी नहीं निभा पाई, जितना मैं ने निभाया है. मैं आत्मविभोर हो उठती.
अपनी हृदय चेतना से निकली आकांक्षाओं को मूर्तरूप में देख कर भला कौन आनंदित नहीं होता. जो कभी परिवार में नहीं रहे, वे इस पारिवारिक सुख आह्लाद की कल्पना भी नहीं कर सकते. हर दिन खुशियों की सतरंगी चुनरी ओढ़े मैं पूरे आकाश का चक्कर लगा लेती. दिनों को जैसे पंख लग गए, 3 साल कैसे बीत गए पता ही नहीं चला.