‘चलिए, मैं आप को मूलचंद ले चलती हूं.’‘क्यों?’‘क्या आप ने वहां के परांठे खाए हैं?’‘नहीं तो.’‘तो आज मैं आप को खिलाती हूं.’जल्दी घर आ जाने वाले नाथू जी उस दिन मंत्रमुग्ध घूमते रहे. ढाबे के परांठे खाए, पंडारा रोड पर चाय पी. रात 9 बजे साची ने उन्हें घर छोड़ दिया. साची हवा के झोंके की तरह उन के मन में घुसती जा रही थी.
एक दिन उन के फोन पर लगातार घंटी बज रही थी. देखा, तो किसी अजनबी का नंबर था. इसलिए उठाना उचित नहीं समझा. कई बार फोन आया तो झुंझला कर उठा लिया. उधर से आवाज़ आई, ‘क्या नाथू जी से मेरी बात हो रही है?’
‘जी हां, मैं नाथू ही बोल रहा हूं.’‘साची जी की तबीयत खराब है. वे अस्पताल में हैं. मैं प्रकाश हौस्पिटल से बोल रहा हूं.’‘क्या हुआ उन्हें?’‘कुछ ज्यादा नहीं.’ ‘अच्छा, कोई बात नहीं, मैं आता हूं. बस, दो मिनट में पहुंचा.’हौस्पिटल जा कर पता चला कि गैस की बीमारी के कारण रात में उन की हालत खराब हो गई थी. नाथू को देखते ही मुसकराने की कोशिश करते हुए सची ने कहा, ‘परेशान कर दिया न आप को. इसीलिए, सिर्फ इसीलिए मैं बेटियों के पास जाना चाहती थी वरना कौन अपना देश छोड़ता है.’
‘अब कैसा महसूस हो रहा है?’‘काफी बेहतर.’तभी दरवाज़ा खुला और एक युवती कमरे में दाखिल हुई जिस की शक्ल हूबहू साची जैसी थी, इसलिए यह अंदाजा़ लगा पाना मुश्किल न था कि वह उन की बेटी ही होगी. आते ही मां से उन का हालचाल पूछने के बाद उस ने अजनबी की तरफ देखा ही था कि साची ने कहा, ‘ये नाथू जी हैं. मेरे बहुत अच्छे दोस्त. इंश्योरैंस का सारा काम यही देख रहे हैं.’
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